'मैं' रश्मि प्रभा एक बार फिर आपके सामने हूँ ... कैलाश शर्मा जी के 'मैं' के साथ ...
भूल जाते
अस्तित्व सम्पूर्ण का,
देखते केवल
एक अंश जीवन का
मान लेते
उसको ही सम्पूर्ण सत्य
वही बन जाता
हमारा
स्वभाव, प्रकृति, अहम् और ‘मैं’.
नहीं होता
परिचय सम्पूर्ण से
केवल बचपने
प्रयासों द्वारा,
जगानी होती
बाल सुलभ उत्सुकता,
बचपना है एक
अज्ञानता
एक भय नवीनता
से,
बचपन है
उत्सुकता और मासूमियत
जिज्ञासा
जानने की प्रति पल
जो कुछ आता
नवीन राह में,
नहीं ग्रसित
पूर्वाग्रहों
पसंद नापसंद, भय व विचारों
से,
देखता हर पल
व वस्तु में
आनंद का असीम
स्रोत.
जैसे जैसे
बढ़ते आगे जीवन में
अहंकार जनित ‘मैं’,
घटनाएँ, विचार और
अर्जित ज्ञान
आवृत कर देता
मासूमियत बचपन की,
देखने लगते
वर्तमान को
भूतकाल के
दर्पण में,
भूल जाते
अनुभव करना
प्रत्यक्ष को
बचपन की दृष्टि से.
जीवन एक गहन
रहस्य
अपरिचित
दुरूह राहें
अनिश्चित व
अज्ञात गंतव्य,
बचपन की
दृष्टि
है केवल
संवेदनशीलता
अनभिज्ञ
भावनाओं
व ‘मैं’ के मायाजाल
से
जो करा सकती
परिचय
हमारे
अस्तित्व के
सम्पूर्ण
सत्य से.