'मैं' शंखनाद,
मैं- रश्मि प्रभा …………रेखा श्रीवास्तव (मेरा सरोकार) के 'मैं' के आरम्भ,गति,चिंतन, के साथ आज हूँ आपके साथ ....
ॐ की ध्वनि प्रतिध्वनि,
रक्तबीज,रक्तदंतिका
पाप-पुण्य
महादेव की जटा से निःसृत गंगा
धरती से लुप्तप्रायः होती गंगा
मैं - क्षितिज
रेत भी,जल भी, भ्रम भी …
मैं- रश्मि प्रभा …………रेखा श्रीवास्तव (मेरा सरोकार) के 'मैं' के आरम्भ,गति,चिंतन, के साथ आज हूँ आपके साथ ....
"मैं"
यही तो है
मेरे अस्तित्व का प्रतिबिम्ब
ये "मैं" जो जन्म से ही
समाहित होता है स्वयं में ,
लेकिन यह "मैं" पाया कहाँ से ?
माँ का "मैं"
पापा का "मैं"
तब जाकर मुझे मेरा "मैं " मिला .
जिसने बचपन से
सत्य की डोर थामी ,
न दंड का भय ,
न प्रताड़ना का डर ,
आसान न था
उस पथ पर चलना ,
चारों और उगे कैक्टस
सत्य के राही को
चीरने की फिराक में रहते मिले .
बिंधी भी पर फिर
सुलझा कर अपने "मैं" को चल पड़ी .
लेकिन
फिर भी गलत समझी गयी ,
जिस के लिए खड़ी हुई
मिथ्यारोपों की तेज आवाज में
सत्य की चीख दब गयी .
फिर आगे बढ़ी
औरों के दुःख काँधे पर उठाये
उन्हें दिखाते हुए रास्ते
अपने "मैं" के प्रकाश से
रोशनी भी दी उनको
बढ़ गए तो सुकून मिला .
फिर आगे
"मैं" में सीता गढ़ी
अनुगामिनी बनी
तो सीता सी
चुपचाप पीछे चली .
अपने "मैं" के अस्तित्व को
सीता बन पीछे किया
वृहत परिवार में
मेरा मैं छल , प्रपंच के
जाल में फाँसा गया
दबाया गया ,
लेकिन वो मेरा "मैं "
कहीं से कमजोर नहीं था,
सिर उठा कर गर्व से
जीत कर दुनियां की जंग
फिर खड़ी हुई मैं
दर्पण से उज्जवल "मैं" को
सबने स्वीकार किया .
"मैं " ने
औरों के मन के बोझ को ,
आँखों के आंसुओं को ,
अपने मन पर
अपने नयनों में लेकर
अपने में धर लिया
और जब एक हंसी की रेखा
उनके मुख पर देखी
तो "मैं" का जीवन उद्देश्य कुछ पूर्ण हुआ .
अभी शेष कुछ काम है
पता नहीं
इस "मैं" की
अंतिम सांस तक
पूरा कर पाऊं
या नहीं ,
फिर भी साँसे बाकी हैं
और मेरे "मैं" का सफर भी !!!
यही तो है
मेरे अस्तित्व का प्रतिबिम्ब
ये "मैं" जो जन्म से ही
समाहित होता है स्वयं में ,
लेकिन यह "मैं" पाया कहाँ से ?
माँ का "मैं"
पापा का "मैं"
तब जाकर मुझे मेरा "मैं " मिला .
जिसने बचपन से
सत्य की डोर थामी ,
न दंड का भय ,
न प्रताड़ना का डर ,
आसान न था
उस पथ पर चलना ,
चारों और उगे कैक्टस
सत्य के राही को
चीरने की फिराक में रहते मिले .
बिंधी भी पर फिर
सुलझा कर अपने "मैं" को चल पड़ी .
लेकिन
फिर भी गलत समझी गयी ,
जिस के लिए खड़ी हुई
मिथ्यारोपों की तेज आवाज में
सत्य की चीख दब गयी .
फिर आगे बढ़ी
औरों के दुःख काँधे पर उठाये
उन्हें दिखाते हुए रास्ते
अपने "मैं" के प्रकाश से
रोशनी भी दी उनको
बढ़ गए तो सुकून मिला .
फिर आगे
"मैं" में सीता गढ़ी
अनुगामिनी बनी
तो सीता सी
चुपचाप पीछे चली .
अपने "मैं" के अस्तित्व को
सीता बन पीछे किया
वृहत परिवार में
मेरा मैं छल , प्रपंच के
जाल में फाँसा गया
दबाया गया ,
लेकिन वो मेरा "मैं "
कहीं से कमजोर नहीं था,
सिर उठा कर गर्व से
जीत कर दुनियां की जंग
फिर खड़ी हुई मैं
दर्पण से उज्जवल "मैं" को
सबने स्वीकार किया .
"मैं " ने
औरों के मन के बोझ को ,
आँखों के आंसुओं को ,
अपने मन पर
अपने नयनों में लेकर
अपने में धर लिया
और जब एक हंसी की रेखा
उनके मुख पर देखी
तो "मैं" का जीवन उद्देश्य कुछ पूर्ण हुआ .
अभी शेष कुछ काम है
पता नहीं
इस "मैं" की
अंतिम सांस तक
पूरा कर पाऊं
या नहीं ,
फिर भी साँसे बाकी हैं
और मेरे "मैं" का सफर भी !!!