31 मई, 2013

क्यों कि मैं ...

मैं मृत्यु  हूँ
मैं जीवन हूँ 
तुम जब तक समझ सको 
मैं बहुत कुछ हूँ 
मैं बन सकती हूँ तुम 
तुम स्वत्व को पहचान सको 
तो तुम भी मैं हो 
................. निःसंदेह 
मैं कोई दंभ है ही नहीं 
दंभ तो प्रतिस्पर्धा है हम के मध्य 
मैं अकेला है 
वह जानता है 
सिंह समूह में नहीं चलता 
हंस पातों में नहीं उड़ते 
अकेले में ही सत्य उभरता है 
मैं अकेलेपन में एक दिव्य प्रकाश है 

             मैं - रश्मि 

















दिव्य प्रकाश में अस्तित्व की परिधि बन आज मेरे साथ हैं ज्योति खरे जी -


मैं अहसास की जमीन पर ऊगी      
भयानक,घिनौनी,हैरतंगेज 
जड़हीना अव्यवस्था हूँ
जीवन के सफ़र में व्यवधान 
रंग बदलते मौसमों के पार 
समय के कथानक में विजन----     

जानना चाहतीं हूँ 
अपनी पैदाईश की घड़ी,दिन,वजह 
जैसे भी जी सकने की कल्पना 
लोग करवाते हैं 
क्या वैसे ही मुझे वरण कर पाते हैं 
जीवन में------      

प्रश्न बहुत हैं,मुझमें,मुझसे 
काश आत्मविश्लेषण कर पाती 
आतंक नाम के जंगल में नहीं 
स्वाभाविक जीवन क्रम में भी 
अपनी भूमिका तय कर पाती------   

मैं सोचती थी 
प्रश्न सभी हल कर लूंगी 
संघर्षों से मुक्त कर दूंगी 
लोग करेंगे मेरी प्रतीक्षा 
वैसे ही, जैसे करते हैं जन्म की-----   

मेरा अस्तित्व अनिर्धारित टाइम बम है 
मैं जीवन की छाती में 
हर घड़ी गड़ती हूँ,कसकती हूँ 
जिजीविषा के तलवे में   
कील की तरह------  

हर राह पर रह-रह कर मैने 
अपना कद नापा है 
मापा है अपना वजन 
मेरी उपस्थिति से ज्यादा भयावह,असह है 
मेरी उपस्थिति का दहशतजदा ख्याल 
पर मैं कभी नहीं जीत पाई 
प्रणयाकुल दिलों की छोटी सी जिन्दगी में 
नहीं खोद पाई अफ़सोस की खाई------ 

क्यों लगा लेते हैं मुझे गले    
प्रेम से परे,ऊबे और मरने से पहले 
मरे हुये लोग 
दो प्रेमी भर लेते हैं आगोश में 
प्रेम की दुनियां में किसी 
सुकूनदेह घटना की तरह-----

मैं अपने आप को मिटा देना चाहती हूँ 
स्वाभाविक जीवन और 
तयशुदा मृत्यु के बिन्दुपथ पर 
नहीं अड़ना चाहती 
किसी गाँठ की तरह 
क्यों कि मैं 
मृत्यु हूँ ------












"ज्योति खरे"   

27 मई, 2013

मैं का नहीं कभी भी अवसान होता !!!!

मैं - केवट है
तो मैं ही राम 
केवट को राम कह लो 
या राम को केवट .....
मैं ही किनारे से बढ़ता है 
मैं के सहारे दूसरे किनारे पहुँचता है 
मैं चाह ले दुविधा तो मझदार 
मैं थाम ले अपने डगमगाते विचारों को 
तो किनारा ............ 
मैं में अद्भुत क्षमता है 

                मैं - रश्मि प्रभा 








आज मैं' की आस्था की अखंड ज्योत लिए जानी मानी सीमा सिंघल अपनी सदा के साथ हैं - 
मैं के रंगमंच पर ...........


मैं एक ऐसा बिंदु
जो आस्‍था भी है और संकल्‍प भी
मैं शक्ति भी मैं सर्वस्‍त्र भी
मैं वो दर्पण
जिसमें हर एक को अपने
हम का प्रतिबिम्‍ब दिखलाई देता है
मैं नदियों में गंगा
वेदों में गीता
अनंत मेरा आकाश
सहस्‍त्र मेरा धरती
जो मिटाये नहीं मिटता
झुकाये नहीं झुकता
....
मैं साथ सबके ऐसे
जैसे एक साँकल
कड़ी दर कड़ी शांत‍ स्थिर मना
जब बजे तो भीतर तक
एक स्‍वर में बजकर गुँजायमान हो !
....
मैं एक सुरक्षा प्रहरी
अडिग अविचल शक्तिशाली
भय रहित कर
विश्‍वास की हथेलियों के मध्‍य
उंगलियों के पोरों की छुअन से
जो वचनबद्धता के कुंदे पर सवार हो
तो हवाओं के मध्‍य
मेरी अडिगता का बखान होता
मैं का नहीं कभी भी अवसान होता 
मैं से तो बस जीवन का दान होता !!!!















सीमा सिंघल 'सदा' 
http://sadalikhna.blogspot.in/

23 मई, 2013

करीब से मैं की सुनो तो ...

तुम मानो न मानो
हम इसे स्वीकार करे न करे 
पर मैं मैं ही हूँ 
... यह मैं मेरा अहम् नहीं 
मेरी पहचान है 
मैं हट जाऊँ 
दे दूँ अपनी आहुति 
तो रह क्या जाएगा !
अस्तित्वहीन एक शरीर ................

                        मैं - रश्मि प्रभा 




कई बार हास्य महज हंसने के लिए नहीं होता .सहज सन्देश भी छिपा होता है ...
अपने मैं को संतुष्ट करने के लिए हम क्या नहीं कहते , क्या नहीं करते ...जब अपने मुख से या किसी और के मुख से लगातार मैं -मैं सुनायी देता है तो एक उकताहट सी हो जाती है ....
हम जो होते हैं उसे इतने विस्तार से क्या बयान करना है , वह नजर आ ही जाता है , दूर रहने वालों को कुछ देर मुखौटों से बहलाया जा सकता है , मगर करीब आकर साफ़ चेहरा नजर आ जाता है इस "मैं" का ...

             




मत पूछ मैं क्या हूँ
मैं ये हूँ , मैं वो हूँ ....

मैंने ये किया , मैंने वो किया
मैंने उसको रुलाया
मैंने उसको सताया
मुझसे वो यूँ प्रभावित हुआ

 मैंने उसको यूँ हंसाया
मैं ये कर सकूँ मैं वो कर सकूँ
मैं क्या- क्या नहीं कर सकूँ
मैं... मैं ...मैं... मैं...

मन करता है कभी -कभी
इक मोटी जेवड़ी बाँध दूं
इस मैं के गले में
और रेवड़ के साथ खिना दूं
गड़ेरिये की लाठी की हांक पर
फिर मजे से करते रहियो
मैं ... मैं ...मैं ....मैं ...

---हास्य कविता

जेवड़ी -- रस्सी
खिना दूं --भेज दूं













नाम- वाणी शर्मा 
ब्लॉग - गीत मेरे  एवं ज्ञानवाणी   .

20 मई, 2013

मंजिल "मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!

मैं' तो सबका अपना है
सूरज भी सबका एक है
मुमकिन है भाव एक से होंगे 
पर एक सूक्ष्म जुगनू से एहसास अलग होंगे 
एक मैं अहम् 
एक मैं समाहित 
एक मैं, मैं की तलाश में 
तो एक मैं कणों में ............... मैं की अपनी फितरत अपने अनुभवों से होती है .... मैं' को हम बनाने की कोशिश करते हैं पर मैं, मैं को जब तक स्वयं नहीं तराशता - भटकता रहता है . कभी रिक्त सा,कभी सम्पूर्ण सा -

                  मैं - रश्मि प्रभा 


















इसी एक की तलाश में आज मैं' की ठोस कड़ी हैं - रंजना भाटिया 


मैं कौन हूँ "? यह सवाल अक्सर हर इंसान के दिल में उभर के आता है कुछ इसकी खोज में जुट जाते हैं ...और कुछ रास्ता भटक कर दिशाहीन हो जाते हैं .यह "मैं "की यात्रा इंसान की कोख के अन्धकार से आरम्भ होती है और फिर निरन्तर साँसों के अंतिम पडाव तक जारी रहती है ....यही हमारे होने की पहली सोच है चेतना है जो धीरे धीरे ज़िन्दगी के सफ़र में परिवार से समाज से धर्म से और राजनीति से जुडती चली जाती है ..मैं शब्द ही अपने अस्तित्व को बचाने की एक पुरजोर कोशिश ..और एक ऐसी वाइब्रेशन जो खुद से खुद को एक होने के एहसास से रूबरू करवा देती है ...और जब यह तलाश पूरी होती है तो दुनिया को रास नहीं आती है ..मैं मीरा बन के जब जब पुकार करती है तब तब समाज अपने अहम् को ले कर सामने आ जाता है ...जब जब यह मैं की चेतना जागती है तब तब जहर के प्याले होंठो से लगा दिए जाते हैं ..पर न यह खोज रूकती है न यह मैं का ब्रह्मनाद रुकता है यह तो बस नाच उठता है ..पग में बंधे घुंघरू में और नाद बन के जगा देता है अंतर्मन को 

खुद में खुद को पाने की लालसा 
खुद में खुद को पाने की तलाश 
उस सुख को पाने का भ्रम 
या तो पहुंचा देता है 
मन को ऊँचाइयों में
या कर देता है
दिग्भ्रमित 
और तब 
लगता है जैसे 
मानव मन पर 
कोई और हो गया है ..........

यदि यह मैं कौन हूँ का सवाल मिल जाता है तो इंसान बुद्धा हो जाता है ..और नहीं मिलता तो तलाश जारी रहती है ..इसी तलाश में जारी है मेरी एक कोशिश भी ..

सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
"मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
"मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!















16 मई, 2013

अहम् ब्रह्मास्मि ...


मैं एक आग है,मैं पानी है,मैं तूफ़ान,मैं बौखलाहट,मैं घबराहट
मैं ही जीतता है मैं ही हारता है 
मैं ही जुड़ता है 
मैं ही तोड़ता है 
मैं न चाहे तो एकता कैसी 
परिवर्तन कैसा 
दो मैं के एकाकार होने में सृष्टि है 
मैं को अपमानित मत करो 
मैं चला गया 
तो सब गया 
मैं से ही है सबकुछ और नहीं भी है ................................

                      मैं - रश्मि प्रभा 



आज के अस्तित्व की कड़ी में श्री कैलाश शर्मा - अनुभवों के ब्रह्माण्ड के साथ - 

‘अहम् ब्रह्मास्मि’
नहीं है सन्निहित 
कोई अहंकार इस सूत्र में,
केवल अक्षुण विश्वास 
अपनी असीमित क्षमता पर.
  
‘मैं’ ही व्याप्त समस्त प्राणी में
‘मैं’ ही व्याप्त सूक्ष्मतम कण में 
क्यों मैं त्यक्त करूँ इस ‘मैं’ को, 
करें तादात्म जब अपने इस ‘मैं’ का
अन्य प्राणियों में स्थित ‘मैं' से
होती एक अद्भुत अनुभूति 
अपने अहम् की,
नहीं होता अहंकार या ग्लानि
अपने ‘मैं’ पर.

असंभव है आगे बढ़ना
अपने ‘मैं’ का परित्याग कर के, 
यही ‘मैं’ तो है एक आधार 
चढ़ने का अगली सीढ़ी ‘हम’ की,
अगर नहीं होगा ‘मैं’
तो कैसे होगा अस्तित्व ‘हम’ का, 
सब बिखरने लगेंगे 
उद्देश्यहीन, आधारहीन दिवास्वप्न से. 

‘मैं’ केवल जब ‘मैं’ न हो
समाहित हो जाये उसमें ‘हम’ भी
तब नहीं होता कोई कलुष या अहंकार, 
दृष्टिगत होता रूप 
केवल उस ‘मैं’ का 
जो है सर्वव्यापी, संप्रभु, 
और हो जाता उसका ‘मैं’
एकाकार मेरे ‘मैं’ से
असंभव है यह सोचना भी
कि नहीं कोई अस्तित्व ‘मैं’ का, 
यदि नहीं है ‘मैं’ 
तो नहीं कोई अस्तित्व मेरा भी,
‘मैं’ है नहीं मेरा अहंकार 
‘मैं’ है मेरा विश्वास 
मेरी संभावनाओं पर 
मेरी क्षमता पर, 
जो हैं सन्निहित सभी प्राणियों में 
जब तक है उनको आभास 
अपने ‘मैं’ का.











कैलाश शर्मा 

13 मई, 2013

मेरा ‘मैं’ ...

मैं एक यज्ञ
मैं ही यज्ञ की अग्नि 
मैं ही संकल्प 
मैं ही कर्ता मैं ही हर्ता 
मैं ही आहुति 
मैं प्राणवायु 
मैं मृत्यु की खामोश आहटें 
मैं शब्द मैं ख़ामोशी 
मैं रेखा मैं चित्र 
देखते देखते मैं ही एक खाली कैनवस 
अज्ञानता की हद मैं 
ज्ञान का मुखर प्रकाश मैं 
मैं हन्ता,मैं निर्माता 
मैं मर्मज्ञ मैं कुटिल ....... मैं अपने भीतर सारे मैं से भरा हूँ ....... भरा हूँ,पर हम सिर्फ - 'मैं' 

                             मैं - रश्मि प्रभा - 















आज आपके पास हैं साधना वैद जी .... जिनके मैं' में जीवन का सारांश मिलता है ....

जब भी अपने
हृदय का बंद द्वार
खोल कर अंदर झाँका है
अपने ‘मैं’ को सदैव सजग,
सतर्क, संयत एवँ दृढ़ता से अपने
इष्ट के संधान के लिये
समग्र रूप से एकाग्र ही पाया है !
ऐसा क्या है उसमें जो वह
सागर की जलनिधि सा अथाह,
आकाश सा अनन्त, धरती सा उर्वर,
वायु सा जीवनदायी व गतिमान एवँ
पवित्र अग्नि सा ज्वलनशील है !
ऐसा क्या है उसमें जो
संसार का कोई भी आतंक
उसे भयभीत नहीं करता,
कोई भी भीषण प्रलयंकारी तूफ़ान
उसे झुका नहीं सकता,
कैसे भी अनिष्ट का भय उसका
मनोबल तोड़ नहीं पाता !
लेकिन जो अपनी अंतरात्मा की
एक चेतावनी भर से सहम कर
निस्पंद हो जाता है,
जो मेरी आँखों में लिखे
वर्जना के हलके से संकेत को
पढ़ कर ही सहम जाता है और
मेरे होंठों पर धरी निषेधाज्ञा की
उँगली को देख अपनी वाणी
खो बैठता है !
मैं जानती हूँ
दुनिया की नज़रों में
मेरा यह ‘मैं’
एक ज़िद्दी, अड़ियल, अहमवादी,
दम्भी, घमण्डी और भी
न जाने क्या-क्या है !
लेकिन क्या आप जानते हैं  
मेरा यह ‘मैं’
मेरे आत्मसम्मान का एक
सबसे शांत, सौम्य और
सुदर्शन चेहरा है,
जिस पर मैं अपनी सम्पूर्ण
निष्ठा से आसक्त हूँ !
वह इस रुग्ण समाज में विस्तीर्ण   
वर्जनाओं, रूढ़ियों और सड़ी गली
परम्पराओं की गहरी दलदल से
बाहर निकाल मुझे किनारे तक
पहुँचाने के लिये मेरा एकमात्र 
एवँ अति विश्वसनीय 
अवलंब है !
अपने स्वत्व की रक्षा के लिये
मेरे पास उपलब्ध मेरा इकलौता
अचूक अमोघ अस्त्र है !
मेरी विदग्ध आत्मा के ताप को
हरने के लिये अमृत सामान
मृदुल, मधुर, शीतल जल का
अजस्त्र अनन्त स्त्रोत है !
मुझे कोई परवाह नहीं
लोग मुझे क्या समझते हैं
लेकिन मेरी नज़रों में मेरी पहचान
मेरे अपने इस ‘मैं’ से है
और निश्चित रूप से मुझे
अपनी इस पहचान पर गर्व है !
जिस दिन मेरी नज़र में
इस ‘मैं’ का अवमूल्यन हो जायेगा
वह दिन मेरे जीवन का
सर्वाधिक दुखद और कदाचित
अंतिम दिन होगा क्योंकि
मुझे नहीं लगता उसके बाद 
मेरे जीवन में ऐसा कुछ 
अनमोल शेष रह जायेगा
जिस पर मैं अभिमान कर सकूँ !













साधना वैद

09 मई, 2013

मैं ...


आज मेरे साथ 'मैं' की असमंजसता लिए सौरभ रॉय हैं .... क्या यह मैं" मैं ही है 
या है कोई गुफा 
जहाँ समाधिस्थ कितने सवाल और जवाब हैं 
साँसें चलती हैं 
रुक जाती हैं 
पर मैं का पड़ाव 
अहर्निश अखंड यात्रा के साथ है .......

                      मैं - रश्मि प्रभा 


















हंसते-हंसते अचानक रुका !
सोचा 
किसके साथ मैं क्यों हंसा !
सोचा
ये मेरी शक्ल कैसे !
सोचा
ये मेरी कलम कैसे !
सोचा
ये मेरे मित्र कौन !
सोचा
ये मेरा शरीर कैसे !
सोचा
ये मैं ज़िन्दा कैसे !
सोचा
ये मेरी आँखें कैसे !
सोचा
ये मेरा घर कैसे !

मैं तो इधर गया था
हाँ इधर !
सोचा
तो मैं उधर कैसे !!











- सौरभ राय 

वर्ष 1989 में एक शिक्षित बंगाली परिवार में जन्म 
झारखण्ड में निवास 
बैंगलोर में ब्रोकेड नामक कंपनी में इंजीनियर की नौकरी
तीन काव्य संग्रह प्रकाशित - 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा', 'उत्थिष्ठ भारत' एवं 'यायावर'
हिंदी की कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित - हंस, वागर्थ, कृति ऒर, वटवृक्ष इत्यादि 
हिंदी काव्य के अलावा अंग्रेजी में भी गद्य लेखन, जिन्हें souravroy.com में पढ़ा जा सकता है

06 मई, 2013

मैं ...

मैं - तलाश के रास्ते पर
तलाशता है खुद को 
प्रश्न भी मैं 
उत्तर भी मैं 
मैं ही मैं का जौहरी 
मार्ग अवरुद्ध कर 
काँटे बिछाकर 
मैं को तराशता है 
मैं को ही गूंगा,बहरा बना 
मैं को हीरा बनाता है 
.....समय पर मैं गूंगा न हो तो अस्तित्व सिर्फ वाचाल होता है 
मैं में ही ब्रह्म 
मैं में ही रेगिस्तान ....................तलाश अपनी !!!

 मैं - रश्मि प्रभा,













मेरे साथ वंदना गुप्ता - जिनका मैं कभी अर्जुन,कभी कर्ण,कभी अभिमन्यु,कभी पितामह ..................और कभी सारथि बन पूरे रणक्षेत्र की परिक्रमा करता है -


एक पहेली सुलझाने को 
जब जब चली 
उतना उलझती गयी 
ये कौन है 
जो बेचैन है 
ये कौन है 
जो आवाज़ लगाता  है 
ये कौन है 
जो कराहता है 
ये कौन है 
जो खोज में है 
कोई तो है 
कोई तो है 
कोई तो है 
जो मुझमे से मुझे ढूंढता है 

सुना है 
कोई ईश्वर है 
जिसे सब खोज रहे हैं 
सुना है 
उसकी खोज के बाद 
कुछ खोजना बाक़ी  नहीं रहता 
तो क्या यही है मेरी भी खोज ?
लगता तो नहीं कुछ ऐसा मुझे 
होगा कोई ईश्वर कहीं 
जिसे देखा नहीं 
जाना नही
महसूसा नहीं 
फिर कैसे कोई खोज में संलग्न है 
खोज के लिए सुना है 
कुछ तो निशानियाँ होती है 
जिनके सहारे खोज आकार लेती है 
और जिसका आकार नहीं 
जो निराकार है 
उसकी खोज कोई कैसे करे 

नहीं नहीं नहीं 
ये सूक्ष्म जगत का सूक्ष्म व्यवहार 
मेरी तो समझ से है पार 
मुझमे कुछ तो है 
जो मुझे खोज रहा है 
और वो  ईश्वर नहीं 
इतना जानती हूँ 
तो फिर क्या है ? 
यही जानना है 
खुद से ही इक संवाद करना है 
शायद मुझे "मैं " मिल जाऊँ 
और सम्पूर्णता पा जाऊँ 
फिर कैसी अवधारणा 
ईश्वर है या नहीं 
साकार है या निराकार 
क्या होगा जानकर 
क्योंकि 
सुना   है 
सब " मैं " में ही समाहित है 
फिर चाहे ईश्वर हो या संसार या ब्रह्माण्ड 

एक अणु ही तो है " मैं " 
आत्मबोध , आत्मखोज , आत्मविलास 
जिस दिन खुद से मुखरित होऊँगी 
जिस दिन खुद को जानूँगी 
जिस दिन खुद को पहचानूंगी 
जिस दिन दृष्टि बदल जायेगी 
और दृष्टि में ही सृष्टि समाहित हो जायेगी 
उसी दिन , उसी पल , उसी क्षण 
मेरी खोज पूर्ण हो जायेगी 
जब मेरा " मैं " मुझे मुझमे मिल जाएगा 
तब तक पहेली को सुलझाने को प्रयासरत हूँ ............" मैं " 















वंदना गुप्ता 

03 मई, 2013

मैं से परे मैं के साथ !!!

मैं' एक आगाज़
मैं' शंखध्वनि 
मैं' यज्ञवेदी 
मैं' प्रकृति 
मैं' वह अस्तित्व 
जो माँ को पुकारता है 
मैं' उद्घोष 
मैं' रिश्तों का पहला सूत्र ............. तो करते हैं मैं का आगाज़ हम !

  मैं - रश्मि !


यदि 'मैं'नहीं होना चाहिए 
तो मैं है क्यूँ !
पर यदि मैं ना हो 
तो तुम कैसे,हम कैसे !
मैं से ही आरम्भ है 
मैं ही कहता है 
'तुम मेरे साथ चलो'
फिर 'हम' का कारवाँ बनता है 
 बात आगे बढती है ...

'मैं' सिर्फ दंभ ही नहीं 
एक विश्वास भी है 
एक आग भी है 
सत्य का हिमायती 
परिवर्तन का आगाज़ भी है !

पहचान मैं से है 
योगदान मैं से है 
उपस्थिति मैं से 
.......... नाम ही मैं से जुड़ा है 
पद मैं से जुड़ा है 
मैं यदि एकलव्य है 
तो हम एकलव्य नहीं होते 
..... क्षमता मैं की है 
ताकत भी मैं की 
संकल्प भी मैं का ..........
मैं को खत्म कर दोगे 
तो न आविष्कार होगा 
न अलग अलग रिश्तों की पहचान 
मात्र अहम् के भय से मैं को खत्म कर देना 
परिस्थितियों के विकल्प को खत्म कर देना है !

.... मैं ईश्वर ही है 
जिसका प्रतिनिधत्व शरीर करता है 
शरीर दम्भी होता है 
असुर होता है 
'मैं' हमेशा रोकता है 
शरीर की ज़िद से ही आहत 
'मैं' ने यानि ईश्वर ने उसे नश्वर बनाया 
'मैं' का विनाश नहीं होता 
'हम' की डोर टूट भी जाये 
'मैं' जिंदा रहता है ......... मैं' अमर है !!!