20 नवंबर, 2013

‘मैं’ एक समस्यायें अनेक !!!

मैं' एक स्वीकार है
मैं भविष्य का शोध,
मैं आगाज़,मैं विनाश 
मैं उपजाऊ, मैं बंज़र 
बंजरता सोच की - जो मैं'के व्यक्तित्व से जुड़ी होती है 
मैं'सकारात्मक न हो 
तो न कोई संरचना सम्भव है 
न ही पलायन !!!   
                   रश्मि प्रभा 











‘मैं’ एक समस्यायें अनेक 
समस्यायें अनेक
रूप अनेक
लेकिन व्यक्ति केवल एक।
नहीं होता स्वतंत्र अस्तित्व
किसी समस्या या दुःख का,
नहीं होती समस्या 
कभी सुप्तावस्था में,
जब जाग्रत होता 'मैं'
घिर जाता समस्याओं से।
मेरा 'मैं'
देता एक अस्तित्व 
मेरे अहम् को 
और कर देता आवृत्त
मेरे स्वत्व को।
मैं भुला देता मेरा स्वत्व
और धारण कर लेता रूप 
जो सुझाता मेरा 'मैं'
अपने अहम् की पूर्ती को।
नहीं होती कोई सीमा 
अहम् जनित इच्छाओं की,
अधिक पाने की दौड़ देती जन्म 
ईर्ष्या, घमंड और अवसाद 
और घिर जाते दुखों के भ्रमर में।

'मैं' नहीं है स्वतंत्र शरीर या सोच,
जब हो जाता तादात्म्य 'मैं' का 
किसी भौतिक अस्तित्व से 
तो हो जाता आवृत्त अहम् से
और बन जाता कारण दुखों  
और समस्याओं का.
कर्म से नहीं मुक्ति मानव की
लेकिन अहम् रहित कर्म 
नहीं है वर्जित 'मैं'.
हे ईश्वर! तुम ही हो कर्ता
मैं केवल एक साधन 
और समर्पित सब कर्म तुम्हें
कर देता यह भाव 
मुक्त कर्म बंधनों से,
और हो जाता अलोप 'मैं'
और अहम् जनित दुःख।

जब हो जाता तादात्म्य 
अहम् विहीन ‘मैं’ का   
निर्मल स्वत्व से, 
हो जाते मुक्त दुखों से 
और होती प्राप्त परम शांति।

कैलाश शर्मा 

27 अगस्त, 2013

मेरा 'मैं' ...

रिक्तता,पूर्णता के मध्य 
अपने  'मैं' को बैसाखी बना 
चलता रहता है मेरा 'मैं' 
कभी स्तब्ध- कभी निःशब्द मुखर 
कभी चीत्कार करता,कभी शून्य में विलीन होता 
हर दिन एक नया 'मैं' 
'मैं' से लड़कर 
मेरे आगे खड़ा रहता है 
और मेरे साथ समूह की यात्रा करता है 
'मैं' के नए विम्ब-प्रतिविम्ब के लिए  ……. 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं-रश्मि प्रभा स्व की एक परछाईं सीमा सिंघल 'सदा' के 'मैं' के साथ आज हूँ,कल कोई और 'मैं' मिले  … तब तक मिलिए आज के 'मैं' से 

मेरा 'मैं' - मेरा अहंकार,
मेरा 'मैं' - 
मुझसे भी श्रेष्‍ठ जब हो जाता है 
सच कहूँ
कुछ जलने लगता है  मन में
पर फिर भी नहीं पिघलता
जाने क्‍यूँ मेरा 'मैं'
...
तर-ब-तर पसीने में भीगा 'मैं'
शुष्क ज़ुबान
खोखली बातों का सिरा लिये
सच की जड़ों तक जब पहुँचता है 
घुटनों के बल बैठ
अपने अमिट और अटल होने का अनुमान, 
जीवन का संज्ञान लिये
अपने बुनियाद होने का दंभ भरता है
और इस तरह
खोखला हो जाता कहीं मेरा ही मैं
......
मेरा 'मैं' - मेरा शिखर,
फिर भी हो जाता मौन
श्रेष्‍ठता की पहली पंक्ति पर बैठा
हर चेहरे पर अपना अक्‍स लिये
अपनी भव्‍यता का पाठ  सुनाता
अपना इतिहास गाता 
किसने उसकी उड़ाई हँसी
किसने परिहास किया
सब बातों से बेखबर मेरा 'मैं'
कितने सवालों को अनसुना कर
सिर्फ कर्ता बनकर कर्तव्‍य करता 
एक दिन तपकर
कुंदन हो जाता मेरा 'मैं'
.....

सदा

12 अगस्त, 2013

तुमसे कहने को बहुत कुछ था मेरे पास !!!

'मैं' का अरण्य अर्गला है 
जिसमें तुम फँसे तो शोर है 
विचरण किया  
तो मुक्ति के गूढ़ अर्थ ……. 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं - रश्मि प्रभा शोर से शान्ति की ओर  ……… 
अपने 'मैं' के अरण्य से निकलकर 
मैंने तुमसे बहुत कुछ कहना चाहा था 
पर …………… 
हमारे मध्य परिवेशीय अंतराल था !

माना उम्र हमारी आस-पास ही थी 
आकर्षण के मार्ग भी थे आस-पास 
लेकिन - तुम मैं नहीं थे 
मैं तुम नहीं थी !!
इस एहसास के धागे से मैंने अपने मन के होठ सी दिए 
और आगे बढ़ गई ...
  
अन्तर्द्वन्द की पीड़ा 
धागों को तोड़ने का प्रयास करती 
उससे पहले 
मैं' की मिटटी में 
कई ज्ञान के पीपल पनप आये 
मैं' ने उनकी शाखों पर ख़ामोशी के धागे बाँधे 
संकल्प का सिंचन किया 
समूह की आँधी में 
निःसंदेह मैं' घबराया 
पर मैं' के साथ ही ईश्वर है
इस विश्वास ने उखड़ते हौसलों की जड़ों को पुख्ता बनाया 

आंधियाँ कहाँ नहीं आतीं ?
पाँव किसके नहीं फिसलते ?
मन किसका भ्रमित नहीं होता ?
…… 
सबकुछ सबके हिस्से होता है 
बस सच मानने,झूठ बोलने का फर्क होता है   ….,
एक अनोखी दृढ़ता के साथ 
मेरे मैं' ने इस सच की गांठ बाँधी 
कि तुमसे कुछ भी कहना-सुनना व्यर्थ है 
क्योंकि हमारी मान्यताओं के धर्म 
शुरू से 
बिल्कुल अलग थे 
तुम चौराहे की गिरफ्त से निकलते 
तो दोराहे में उलझते 
और मैंने अपनी राहों को सीमित कर लिया था
 
कुछ मकसदों की अग्नि मेरे आगे निर्बाध जलती रही 
जिसके आगे मेरी हर सोच 
साम,दाम,दंड,भेद की कसौटी पर निखरती गई 
अन्यथा - तुमसे कहने को बहुत कुछ था मेरे पास !!!
बहुत कुछ !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

29 जुलाई, 2013

"मैं" का सफर भी !!!

'मैं' शंखनाद,
ॐ की ध्वनि प्रतिध्वनि,
रक्तबीज,रक्तदंतिका 
पाप-पुण्य 
महादेव की जटा से निःसृत गंगा 
धरती से लुप्तप्रायः होती गंगा 
मैं - क्षितिज 
रेत भी,जल भी, भ्रम भी … 












मैं- रश्मि प्रभा …………रेखा श्रीवास्तव (मेरा सरोकारके 'मैं' के आरम्भ,गति,चिंतन, के साथ आज हूँ आपके साथ ....

"मैं"
यही तो है
मेरे अस्तित्व का  प्रतिबिम्ब 
ये
"मैं"  जो जन्म  से ही
समाहित होता है स्वयं में ,
लेकिन यह "मैं" पाया  कहाँ से ?
माँ का "मैं"
पापा का "मैं"

तब जाकर मुझे मेरा "मैं " मिला .
जिसने बचपन से
सत्य की   डोर थामी ,
न दंड का भय ,
न  प्रताड़ना का डर ,
आसान  न था
उस पथ पर चलना ,
चारों और उगे कैक्टस
सत्य के राही  को

चीरने की फिराक में रहते मिले .
 बिंधी भी पर फिर
 सुलझा कर अपने "मैं" को चल पड़ी .
लेकिन
फिर भी गलत समझी गयी ,
जिस के लिए खड़ी हुई
मिथ्यारोपों की तेज आवाज में
सत्य की चीख दब गयी .
फिर  आगे बढ़ी
औरों के दुःख काँधे पर उठाये
उन्हें  दिखाते हुए रास्ते
अपने "मैं" के  प्रकाश से

रोशनी भी दी उनको
बढ़ गए तो  सुकून मिला .
फिर आगे
"मैं" में सीता गढ़ी
अनुगामिनी  बनी
तो सीता सी
चुपचाप पीछे चली .
अपने "मैं" के अस्तित्व को
सीता बन पीछे किया
वृहत परिवार में
मेरा मैं छल , प्रपंच के
जाल में फाँसा गया
दबाया  गया ,
लेकिन वो मेरा "मैं "
कहीं से कमजोर नहीं  था,
सिर उठा कर गर्व से
जीत कर दुनियां की जंग
फिर खड़ी  हुई मैं

दर्पण से उज्जवल "मैं" को
सबने स्वीकार किया .
 "मैं " ने
औरों के मन के बोझ को ,
आँखों के आंसुओं को ,
अपने मन पर
अपने नयनों में  लेकर
अपने में धर लिया
और जब एक हंसी की रेखा

उनके मुख  पर देखी
तो "मैं" का जीवन उद्देश्य कुछ पूर्ण हुआ .
अभी शेष कुछ काम है
पता नहीं
इस "मैं" की

अंतिम सांस तक
पूरा कर पाऊं
या नहीं ,
फिर भी साँसे बाकी हैं
और मेरे "मैं" का सफर भी !!!











29 जून, 2013

तलाश मेरे ‘मैं’ की ...

हम के हुजूम में सब 'मैं' होते हैं
हम कोई आविष्कार नहीं करता 
हाँ वह 'मैं' को अन्धकार दे सकता है 
'मैं' के कंधे पर हाथ रख सकता है 
'मैं' की आलोचना कर सकता है ..............
मकसद 'मैं' का होता है 
'मैं' न चाहे तो उसे चलाया नहीं जा सकता 
विवशता 'मैं' की 
विरोध 'मैं' का 
व्यूह 'मैं' का 
चीत्कार 'मैं' का 
'मैं' की हार-जीत 'मैं' से है 
हर कारण 'मैं' है 
न चाहते हुए भी 'मैं' हँसता है 
तो वह उस 'मैं' के अपने निजी कारण हैं 
यदि शिकायत है तो 'मैं' से करो 
क्योंकि 'मैं' ही 'मैं' को विवश करता है 
कारण 'मैं' ही पैदा करता है 
पलायन 'मैं' करता है 
निवारण भी 'मैं' का होता है 
..................................................आत्मा 'मैं', परमात्मा 'मैं' - बाकी सब झूठ !

मैं - रश्मि प्रभा,   आज फिर एक बार कैलाश शर्मा जी के 'मैं' के साथ 



ढूँढता अपना अस्तित्व मेरा ‘मैं’ 
जो खो गया कहीं 
देने में अस्तित्व अपनों के ‘मैं’ को.

अपनों के ‘मैं’ की भीड़ 
बढ़ गयी आगे 
चढ़ा कर परत अहम की
अपने अस्तित्व पर,
छोड़ कर पीछे उस ‘मैं’ को
जिसने रखी थी आधार शिला
उन के ‘मैं’ की.

सफलता की चोटी से
नहीं दिखाई देते वे ‘मैं’
जो बन कर के ‘हम’
बने थे सीढ़ियां
पहुँचाने को एक ‘मैं’
चोटी पर.
भूल गए अहंकार जनित 
अकेले ‘मैं’ का 
नहीं होता कोई अस्तित्व 
सुनसान चोटी पर.

काश, समझ पाता मैं भी 
अस्तित्व अपने ‘मैं’ का 
और न खोने देता भीड़ में 
अपनों के ‘मैं’ की,
नहीं होता खड़ा आज 
विस्मृत अपने ‘मैं’ से 
अकेले सुनसान कोने में.

अचानक सुनसान कोने से 
किसी ने पकड़ा मेरा हाथ
मुड़ के देखा जो पीछे 
मेरा ‘मैं’ खड़ा था मेरे साथ
और बोला अशक्त अवश्य हूँ 
पर जीवित है स्वाभिमान  
अब भी इस ‘मैं’ में.
स्वाभिमान अशक्त हो सकता
कुछ पल को 
पर नहीं कुचल पाता इसे 
अहंकार किसी ‘मैं’ का, 
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’ 
स्वाभिमान साथ होने पर.



कैलाश शर्मा 
 

24 जून, 2013

मैंने थाम ली ऊँगली जब "मैं" की !!

मैंने देखा है 'मैं' को हर बार 
दिन के कोलाहल में चुप 
आधी रात को टहलता हुआ 
दीवारों पर अनकहे ख्यालों को उकेरता हुआ 
झूठ से स्वगत करता 
...........................................'मैं' के साथ कोई 'हम' नहीं होता, मैं के साथ आना है,मैं के साथ जाना है और यही सत्य है ...

मैं - रश्मि प्रभा 'मैं' के साथ 














मैंने थाम ली ऊँगली जब  "मैं" की
तब जाना बुद्ध को 
समझा कृष्ण को ...

मैंने तो "मैं' के धरातल पर रामराज्य स्थापित किया था 
एकलव्य सी निष्ठा जगाई थी 
पर ...!!!
कर्ण की दानवीरता सीख कवच गँवा दिया 
तब हारकर कृष्ण का छल अपनाया 
"मैं" को कुरुक्षेत्र बना 
"मैं" की सेना बनाई 
एक मैं' कौरव 
एक मैं' पांडव 
सारथि कृष्ण यानि सत्य !

सत्य अपमानित वचन सुनकर 
रिश्तों से टूटकर 
अलग होकर 
बिलखकर भी दम नहीं तोड़ता 
वह कर्ण की मृत्यु को भी आत्मसात करता है 
क्योंकि असत्य के संहार के लिए 
कई मोहबंध छोड़ने होते हैं 
हाँ -
मोह 'मैं' के पैरों की जंजीर है 
जिसे तथाकथित समाज के डर से 
घुंघरू की तरह बाँधकर मृत 'मैं' भटकता है 
जीने के लिए मैं' को स्वत्व मंत्र का जाप करना होता है 
मैं" को यज्ञकुंड बना 
अपनी कमजोरियों की आहुति देनी होती है 
मैं' को प्रबल बना पुख्ते रास्ते बनाने होते हैं 
ताकि ज़िन्दगी कुछ सुना सके 
आनेवाले 'मैं' को .............







17 जून, 2013

' मैं ' अक्षर

एक सोच खुले आकाश में पतंग की तरह
उड़ान भरती है 
गिद्ध सी प्रतिस्पर्द्धा 
उसके पेंच काटने को 
विद्युत् सी लपकती है 
सोच,महत्वकांक्षा,आविष्कार के आगे 
नफरत के दीमक पनपने लगते हैं 
और शमशान में चिताएँ जलती हैं !!!
"मैं" खुद को समेटता है 
मैं " उम्मीदों के घेरे बनाता है 
फिर अक्षर अक्षर अपने अस्तित्व को एक पहचान देता है ....
 
          मैं - रश्मि प्रभा 
 

एक सार्थक अक्षर के सामर्थ्य के रूप में एक "मैं" संजय पाल को अपने साथ लेकर समंदर की एक एक लहरों को गिन रही हूँ .................


 
 
 
 
 
मैं मेरे लिए महज एक शब्द नहीं है। यह जीवन है। कई मायने में जीवन से भी ज्यादा। यही कारण है कि यह गतिशील होते हुए भी कई मायने में स्थिर रहा है। हमेशा स्थायित्व की पराकाष्ठा और धागे से बाधा हुआ। हां, मैं - मैं ही हूं लेकिन समय के साथ और संदर्भ में उम्र के साथ मेरे मैं होने का मायने बदलता रहा है। जब मैं बाल्यावस्था में था तो 'मैं' मैं ही था। जब किशोरावस्था में था तो भी 'मैं' मैं ही था। अब जब युवावस्था में हूं तो भी 'मैं' मैं  ही हूं। जाहिरतौर पर मेरे जीवन की इन तीनों ही स्थितियों में जीवन के अर्थ महज शाब्दिक नहीं थे। अर्थ और मायने बदलते रहे ... जीवंतता बनी रही।

बाल्यावस्था में मेरा भी जीवन उतना ही सहज था जितना सामान्यतौर पर एक बच्चे का होता है। मन में शरारत, बाल सुलभ चंचलता और होंठो पर अठखेलियां करती मुस्कान। गुड्डे -गुड़ियों के खेल / मिट्टी के घर घरौंदे / और दिल दिमाग के कोने कोने में अपना स्थान पुख्ता किए हुए खिलौने मेरे जीवन के आधार थे। पर मेरी मासूमियत और मेरे मासूम जीवन को वह सब कुछ नहीं मिला जो सच्चे अर्थों में मिलने की सख्त दरकार थी। मेरे घर परिवार में जातिगत पेशा जीवन की प्रथम प्राथमिकताओ में था। हम शेफर्ड कम्युनिटी से संबंधित हैं। मैं महज पांच साल की उम्र से दिन भर भेड़ों के पीछे भागता रहता था। भूख / प्यास / नदी / पहाड़ और झरनों से साक्षात्कार करता शाम को कभी किसी घनेरे जंगल तो कभी किसी सुनसान, निर्जन व बियाबान में सो जाता था। सच कहूं तो मैं एक जन्मजात घुम्म्कड़ी था। जिसने बहुत ही छोटी सी उम्र में प्रकृति और उसके सनिध्व में पल रहे जीवो को देखा और समझा।

यह सफ़र जीवन में लम्बे समय तक चलता रहा। मैं अपने जीवन से पूरी तरह से संतुष्ट था। मेरे ही परिवार में दो लोग सरकारी नौकरी में थे। कभी कभार ही गांव आते थे। गांव के छोटे से बड़े लोग उन लोगों को साहब कहकर संबोधित करते थे। यह संबोधन मुझे बहुत भाता था। पर पढाई लिखाई जैसी चीज की कल्पना करनी भी मेरे बस की बात नहीं थी। परन्तु पढाई लिखाई को भाग्य की नियति मानकर टाल देना भी मेरे बस में नहीं था। संतुष्ट रहने वाला मन अक्सर असंतुष्‍ट और दुखी रहने लगा और इसी दरमियान सोचने समझने की भी विवशता ने मेरे जीवन में अपना एक स्थान बना लिया। सन्दर्भ कोई भी हो मन अनायास ही डूब जाता था विचारगम्यता में ...

यही कारण रहा कि मेरी पढाई लिखाई काफी देरी से शुरू हुई। शुरुआत के दिनों में घर पर ही किताबों का अध्ययन मैंने स्वयं से शुरू किया। बाद में मेरी पढ़ाई लिखाई में गहन रूचि को देखकर मुझे घुम्मकड़ी जीवन से आजाद कर दिया गया। पढ़ने लिखने को अनुकूल माहौल मिले इसलिए मुझे मेरे नानी के घर भेज दिया गया। जहां रहते हुए मैंने अपनी पांचवी तक की पढ़ाई पूरी करते करते अपनी जिंदगी की पहली मंजिल तलाशा। जवाहर नवोदय विद्यालय में मेरा  सलेक्शन मेरी जिंदगी को एक ऐसे मोड़ पर ले आया जहां से मुझे सपने देखने की विस्तृत आजादी मिली, मैंने दुबारा सपने देखने शुरू किये। पर बिना कुछ पाने की उम्मीद के साथ। इस स्कूल ने मुझसे बिना कुछ लिए सात सालो तक मुझे पढ़ाया- लिखाया, सजाया- संवारा और आदमी से इन्सान बनाया।

सात सालों में मैंने अपने खोए हुए आत्मसम्मान को विकसित किया। प्रतिस्पर्धा की दुनियां में खड़ा होना सीखा। आत्मसम्मान के साथ जीने की ललक ने जिंदगी को कई आयाम दिए पर मैं कभी नहीं भूला हूं कि मेरा धरातल क्या है। अपने बोर्डिंग स्कूल के ही समय मुझे एक दिन पता चला की हम जिस पैसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं, उसमे एक बहुत बड़ा अंश देश के उधोगपतियों के साथ साथ देश के उन किसानों का भी है जो अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पाते पर टैक्स के रूप में अपनी खून पसीने की कमाई का एक हिस्सा भारत सरकार को देते हैं। नवोदय विद्यालय पूरी तरह से सरकारी उपक्रम है। इस तरह से मेरी पढ़ाई- लिखाई में देश के तमाम कामगारों का भी एक विशेष योगदान रहा है।

यही वह बात है जिसने मुझे मेरी जिंदगी को सार्थकता की तरफ मोड़ा। मैंने अपनी छोटी सी उम्र में सफलता के कई आयाम देखे परन्तु जिरह सार्थकता के प्रति ही रही। मेडिकल का इनटरेन्स क्वालिफाइड किया। यूनाइटेड नेशन फोर्टी टू एनुअल एग्जाम क्वालिफाइड किया। टीवी सीरियलों और डाकूमेंट्री फिल्म की स्क्रिप्ट लिखे। सामाजिकता के विभिन्य मुद्दों पर शोध कार्य किया। मीडिया / थिएटर और सामाजिक कार्यों में आज भी संलग्न हूं। परन्तु आज भी सफलता को कम और सार्थकता को ज्यादा महत्त्व देता हूं। सच कहूं तो मेरे 'मैं' होने में कर्म की प्रधानता ज्यादा है, और मेरा 'मैं' होना एक निश्चित रूप और आकार लेने के क्रम में आगे बढ़ रहा है जिसमें मेरे परिवार का एक महत्वपूर्ण योगदान है। 

उपरोक्त जीवन के आलावा अब मैं खुद को एक अलग रूप में पाता हूं। जिसे आप दूसरा पक्ष कह सकते हैं। सृजन और लेखन मेरे राग राग में बसा है पर ...

मैं / मैं सिर्फ शब्द नहीं हूं। ना ही किसी की प्रेरणा से उपजा वाक्य। मैं अक्षर हूं। प्रेरक भी बन सकता हूं। तुम चाहो तो बना सकते हो मुझे अपनी प्रेरणा भी। परन्तु याद रहे अपार संभावनाओ का संसार शब्दों से नहीं अक्षरों से उपजा था। सूक्ष्म हूं एक बिंदु की तरह से पर मुझे केंद्र माना जा सकता है। आखिर बीज से ही तो वट वृक्ष की संभावना बनती है। एक बार पुनाश्य याद किया जा सकता है कि शब्द अक्षरों से बने थे। शब्दों से बुनी गई थी कविता / कहानियां / और उपन्यास जैसी अनगिनत विधाएं। वस्तुत: सभी का आधार अक्षर ही था।

अक्षर आधार भी है, अमृत भी। गिनती के स्थाई, स्थिर, चिर परिचित। शब्द बीज बोया जा सकता है परन्तु अक्षरों को उपजाते कभी किसी ने देखा है ? बहुत सारे सवालों के बीच मैं एक सच हूं। जिसे उपजाया भले ही नहीं जा सकता परन्तु उस पर खेती की जा सकती है। साहित्य में भी तो आखिर शब्दों की खेती ही तो होती है। जोतना / बोना / काटना / अच्छे बीज से रोपण करना / समय समय पर खाद पानी देना और जरुरत पड़ने पर कीटनाशक भी डालते रहना।
मैं भी खुद को अक्षरों की ही तरह साहित्य की विविध विधाओ में खुदको ढालना चाहता हूं। साहित्य को ही अपना मर्म, कर्म और धर्म बनाना चाहता हूं। मैं भी जीवन के बिखराव को शब्दों की माला में पिरोना चाहता हूं। वह आंसू, वह दर्द, वह प्यास और वह पीड़ा, जो बिना किसी लक्ष्य तक पहुचे अपना दम तोड़ देती है उसे अपनी कलम के माध्यम से एक आयाम तक पहुँचाना चाहता हूं। जीवन में घुले हुए दर्द और विषमता को कलम की नोक से टपकाना चाहता हूं।

कभी कभी आईने के सामने खड़ा होता हूं। मेरा ही एक और अक्‍स निकलकर मेरे सामने आ जाता है। उसके हाथो में कलम होती है। वह कहता है कि मैं लेखक हूं। वह मुझे भी  उँगली पकड़कर लिखना सिखाता है। सिखाने के क्रम में कभी कभी आंदोलित कर जाता है। कहता है कि तुम तलवार चलाओ या फिर कलम एक ही बात है। मैं प्रतिशोध करता हूं। कहता हूं यह भला कैसे हो सकता है ? वह कहता है क्यों नहीं हो सकता ? जितनी धार तलवार में होती है उतनी ही कलम में, पर तुम कलम चलाना क्योंकि यह जायज है और एक लेखक की नियति भी तो मरने की बजाय बचाना होता है।

कभी कभी उसी आईने के सामने खड़े होने पर एक और अक्‍स निकलता है। इसके हाथ कूची होती है। अपने आपको कहता चित्रकार कहता है। मेरे पीठ पर कुछ आड़ी - तिरछी रेखाएं खीचकर चित्र बनाता है। मैं पूछता हूं यह क्या है? किसका चित्र बना रहे हो कहता है मानवता का। मैं जोर जोर से हँसता हूं, ठहाके लगाता हूं। और पूछता हूं कि अगर कोई पीछे से आकर तो ? वह कहता है तो क्या हुआ ? जो पैदा हुआ है मिटना उसकी जन्मजात नियति है। हां, पर अगर कभी यह चित्र मिट जाए तो तुम किसी और के पीठ पर एक चित्र बना देना ? और उससे भी यही कहना की यदि उसकी पीठ से चित्र मिट या मिटा दिया जाए तो किसी की पीठ पर एक और चित्र बनाएगा। इस तरह एक और एक और करके मिटने और बनने के क्रम में पूरी दुनियां मानवता के रंग से रंग जाएगी।

 क्योकि मिटकर भी सबकुछ नहीं मिटता है, कुछ ना कुछ असर रह जाता है। पीठ पर मानवता के यही हल्के हल्के निशान सृष्टी को आगे बढ़ाएंगे तुम सृजक को/ सृजन का आधार विकसित करो। मैं अर्ध निंद्रा में उसकी बकवास सुनता रहता हूं। उनीदी आंखो पर सपनों को भारी पड़ता देख सो जाता हूं। सुबह पलकें खुलती हैं। कमरे की सारी की सारी दीवारों को रंगा देख दिग्भर्मित होता हूं। मन आश्चर्य में डूबा हुआ ना जाने दीवारों पर उकेरी गई आकृतियों में जीवन के कितने अर्थ और संयोजन तलाशता है।

अपने आपको कई अर्थो में पाता हूं। मेरे अन्दर सर्दी धूप और बारिश में भीगता हुआ एक पत्रकार भी है। जो बहुत ही निर्दयी सा प्रतीत होता, आभाव के जीवन को सर्वोपरि मानता है। उसे दूसरों की परवाह खुद से भी कहीं ज्यादा है। वह अपने जीवन से ज्यादा कुछ नहीं चाहता है। यह काम साहित्य की तरह सार्थक नहीं होते हुए भी जरुरी है। इसलिए अक्सर वह मेरे घर की दहलीज पर खड़ा रहता है। किसी घटना की खबर आई नहीं कि अपना कैमरा और रिकॉर्डर लेकर घटनास्थल की तरफ भागता है। लोगों से बातें करता है, सच को सच साबित करने के लिए तथ्य और साक्ष्य इकठ्ठा करता है। उसके पास आर्थिक / सामाजिक / राजनैतिक और ना जाने कौन कौन से कितने मुद्दे होते हैं। हर मुद्दे पर बात और बहस करता है। सार्थकता को साबित करने के लिए ना जाने कितने निरर्थक कार्य करता है। कभी झुग्गियों, झोपड़ियों और रेड लाइट कहे जाने वाले एरिया में अपना वक़्त खपाता है। इस क्रम में उसकी शालीनता पर कीचड़ उड़ेला जाता है। वह आहत होता है। पर जब कर्मप्रधान हो तो सबकी सब चीजें पीछे छूट जाती हैं। 

कर्म को छोड़कर मेरे लिए भी बहुत सारी बातें पीछे छूट चुकी हैं। जीवन की सार्थकता के संदर्भ तलाश रहा हूं ... पर आज भी मैं अक्षर ही हूं ...संभावनाओ की तरफ उन्मुख ' मैं ' मैं ही तो हूं। 
 
 
संजय पाल 

12 जून, 2013

“मैं”.......एक विचार

मैं " एक पतली सुरंग से निकलने का मनोबल रखता है बिना किसी 'हम' के
सफलता 'मैं' की होती है 
यदि 'मैं' विनम्र हुआ तो सौन्दर्य बरकरार 
अहंकार का नशा चढ़ते विनाश का कगार !
मैं' ' सफलता है तो 'मैं ' मारक भी है 'मैं' का .........

              मैं - रश्मि प्रभा 




आज हाइकू की जादूगर ऋता शेखर मधु के साथ मैं'" का विचार लेकर आपके सामने हूँ







कतरा कतरा जमा होता तब समुन्दर बनता है
कली कली जब खिल जाती तब उपवन सज जाता है
इकाई से दहाई बनती और तब सैंकड़ा बन पाता है
मैं से हम, फिर होते हमलोग तब समाज बन जाता है
मैं जब तक अस्तित्व में नहीं आएगा तब तक समष्टि का निर्माण सम्भव नहीं|किन्तु विडम्बना यह है कि जो मैं समाज का निर्माण करता है वह उसी समाज में विलीन होने लगता है|मै खुद को उपेक्षित और अस्तित्वहीन महसूस करने लगता है|जो मैं समाज को पहचान देता है वही अपनी पहचान खोने लगता है तब आवश्यकता महसूस होती है अपना वजूद तलाश करने की| अहम् का मतलब बताने की|हर मैं की अपनी ज़िन्दगी होती है, अपने अनुभव होते हैं.अपनी अहमियत होती है| उसके अपने सुख दुख होते हैं जिसमें कोई पूर्ण रूप से सहभागी नहीं बन सकता| एक शिशु जब संसार में आता है तो अपना आगमन बताने के लिए वह रोता है तभी सब जान पाते हैं कि नन्हा मेहमान आ गया|वहीं से वह मैं की तलाश शुरु कर देता है|किसी नन्हे बच्चे की ओर ध्यान न दिया जाए या चीजों में कम हिस्सा दिया जाए तो उसका विरोध शुरु हो जाता है|बार बार यह बताने की आवश्यकता महसूस होने लगती है कि मैं भी हूँ| मैं भी एक पूर्ण मानव हूँ जिसके दायरे में हर अधिकार और कर्तव्य आ जाते हैं|सबसे पहले वह अपने घर में अपना वजूद तलाशता है| फिर वह समाज में कदम रखता है| वहाँ भी उसे आवश्यकता महसूस होती है कि उसके मैं’ को मान मिले|
    हमारा समाज दो वर्गों में विभाजित है-स्त्री वर्ग और पुरुष वर्ग| पुरुष वर्ग का मैं सुरक्षित रहता है क्योंकि उनका एक अपना घर होता है| स्त्री वर्ग का मैं’ हम या हमलोग में निहित हो जाता है| स्त्री के पास कोई घर नहीं होता| वह सदैव उस निर्णय पर  चलती है जो दूसरों के द्वारा उसके लिए लिए जाते हैं जबकि वह भी उतनी ही सक्षम है जितने पुरुष...या कभी कभी उनसे भी ज्यादा| लड़की जबतक अविवाहित है तभी तक माता पिता के घर को अपना कह पाती है जबकि उसे मालूम होता है कि भविष्य में वह घर भी उसका नहीं| विवाह के पश्चात् वही घर, घर नहीं मायका कहलाने लगता है| मायका मतलब माँ का घर...फिर उसका घर कहाँ खो गया? जिस नए घर में वह जाती है वह ससुराल कहलाता है...मतलब सास का घर...फिर मिलने वाला नया घर उसका कहाँ है?जब ये दोनों घर उसके हैं ही नहीं फिर अपनी इच्छानुसार जीने के लिए वह आजाद भी नहीं| खुदा न खास्ता यदि पति ढंग का न मिला तो उस स्त्री का जीना भी दूभर हो जाता है| सात फेरे हमेशा सुखद जीवन के वचन के साथ लिए जाते हैं किन्तु सात फेरों के साथ पुरुष को एक अधिकार स्वतः मिल जाता है- अपनी पत्नी पर हुक्म चलाने और गाहे बेगाहे उसे बेइज्जत करने का अधिकार| उसकी सोच पर भी वह जबरन अधिकार जमाने लगता है| स्त्री की भूख ,प्यास,नींद,हँसना,रोना,बोलना...सब कुछ पति के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है| उसके बाद वह स्त्री कहीं गुम हो जाती है|वह भी एक मैं है ,इसे वह भूल जाती है| तब वह निकल पड़ती है अपने खोए हुए वजूद को ढूँढने...जहाँ वह जानी जाती है सिर्फ़ अपने नाम से...किसी की बेटी, पत्नी, बहु या माँ के नाम से नहीं| फिर इन्हीं लोगों के द्वारा वह सम्मान भी पाने लगती है|
    गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण को अपना महत्व बताना पड़ा है| ऋतुओं में, नदियों में, भोजन में, वृक्षों में, महीनों में जो सर्वश्रेष्ठ है..वही कृष्ण अर्थात् विष्णु हैं...ऐसा कृष्ण ने खुद कहा| जब भगवान को अपना महत्व साबित करने के लिए बोलना पड़ा तो हम तो तुच्छ मानव हैं| जब तक हम स्वयं अपने मैं का मान नहीं करेंगे तो लोगों को क्या पड़ी है| स्त्री है तभी तो संसार है|
मैं जहाँ एक तलाश की चाहत है वहीं सिर्फ मैं विनाश का आगाज भी है| रावण ने कहा था सिर्फ मैं...हिरणयकशिपु ने कहा सिर्फ़ मैं...नतीजा..विनाश !! मैंस्वाभिमान है... सिर्फ़ मैं अभिंमान| अभिमान से बचो...स्वाभिमान को सुरक्षित रखो| मैं को सुरक्षित रखो| खुद को पाओ|...फिर न ज़िन्दगी से शिकायत रहेगी...न किसी और से!!











...ऋता शेखर मधु

07 जून, 2013

मैं ....

मैं " एक आरम्भ है 
पर मैं " सर्वस्व नहीं - सर्वस्व एक मिश्रण है 
सर्वस्व तो ईश्वर भी नहीं 
भक्त नहीं तो ईश्वर कहाँ !
ईश्वर सूत्रधार है 
जन्म लेता हर "मैं" प्रतिनिधि 
"मैं" पहली किरण है = हर आरम्भ का ....

    मैं - रश्मि प्रभा 


















और मेरे साथ 'मैं' की सूक्ष्मता के साथ हैं सरस दरबारी 

आत्‍मन' सृष्टि और व्‍यक्ति के बीच की वह कड़ी है जो उसे ब्रह्माण्‍ड से जोड़ती है ... विभिन्‍न स्‍तरों पर ... ! 'जीवात्‍मन' उसी 'आत्‍मन' का एक सूक्ष्‍म रूप है - जहाँ से ऊर्जा का उद्गम होता है और वह ब्रह्माण्‍ड के आखिरी छोर तक फैल जाती है ... जल- स्‍तर पर उठती तरंगों सी ... उसी के मध्‍य बसा है एक बिंदु ... 'मैं' जो घिरा हुआ है सकेंदरी वृत्तों (कोंसेट्रिक सर्कल्‍स) से जो बाहर की और जाते - जाते 'मैं' के दायरे को और विस्‍तृत करते जाते हैं .. 'मैं' ... मेरा परिवार ... मेरा घर ... मेरा मोहल्‍ला ... मेरा प्रान्‍त... मेरा देश ... इत्‍यादि और बढ़ते-बढ़ते वृत्त ब्रह्माण्‍ड के आखिरी सिरे तक पहुँच जाता है हर व्‍यक्ति का ब्रह्माण्‍ड उसकी अपनी शिक्षा,अपनी समझ और ज्ञान तक ही सीमित है। यही से उसकी सोच का उद्गम होता है और उसकी प्रवृत्ति निर्धारित होती है। अगर व्‍यक्ति की सोच 'मैं' से शुरू होकर बाहर के वृत्तों की और बढ़ती है तो वह स्‍वार्थी, लोभी, आत्‍म-केन्द्रित और स्‍व हित के बारे में सोचने वाला व्‍यक्ति कहलाता है ... उसी सोच से प्रभावित होते हैं 'रिश्‍ते' चाहे वह उसके रिश्‍ते हों, उसका परिवार हों, रिश्‍तेदार हों, मित्र अथवा परिचित... अक्‍सर उपलब्धियों का अहंकार 'मैं' के दंभ को पोसता है, कुछ ऐसा ही हुआ था हिरण्‍यकश्‍यप के साथ जिसने अपनी शक्ति के मद्य में अँधा हो, अपने ही पुत्र को भस्‍म करने का आदेश दे दिया था सिर्फ इसी होड़ में की कौन अधिक शक्तिशाली है... प्रह्लाद के विष्‍णु या वह स्‍वयं ... वहीं प्रह्लाद के ही पोते असुर राजा महाबली के घमंड को श्री विष्‍णु ने वामन अवतार में तीन पग धरती माँगकर चूर-चूर कर दिया था !
एक पराक्रमी और समझदार व्‍यक्ति ऐसी परीस्थितियों से फिर भी उबर सकता है, लेकिन एक मूर्ख अपना सर्वनाश कर लेता है, असुर राजा महाबली ने वामन से क्षमा मांग मोक्ष प्राप्‍त कर लिया और अपना परलोक सुधार लिया वहीं दंभी हिरण्‍यकश्‍यप झुका नहीं और मृत्‍यु को प्राप्‍त हुआ ... इन कहानियों से हमेशा अच्‍छाई के महत्‍व को समझाया गया और बुराई के दोषों पर जोर दिया गया... हमें यह जताया गया कि अपना जीवन हम स्‍वयं चुनते हैं। सोच वह उपजाऊ ज़मीन है जिस पर हम अपनी अस्तित्‍व का पेड़ रोपते हैं और उसी के अनुसार फल पाते हैं। और हमारा चयन तय करता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी क्‍या पाएगी ... 'काँटे' या 'आम' .... !
जब सोच संकीर्ण होती है तब आपस ही में दीवारें खड़ी हो जाती हैं तभी तो 'बौद्ध' जैसे शांतिप्रिय धर्म में भी बँटवारा हुआ ... 'महायन' और 'हिनायन' दो संप्रदाय बन ... मुसलमानों में 'शिया सुन्‍नी' बने ईसाइयों में 'कथोलिक' और 'प्रोटोस्‍टेंट' बने ... घरों में बँटवारे हुए ... और सगे भाईयों में बैर पनपे ... पर जब किसी इकाई पर बाहर से संकट गहराया, तब अपने भेद-भाव भूलकर एक हो गए और उनकी सोच 'मै' से हटकर हम, तुम  हमारा समाज, शहर, प्रान्‍त, देश तक व्‍यापक हो गयी, फिर चाहे संकट देश पर आया हो, समाज पर, धर्म पर या अपने परिवार पर ... ऐसे में व्‍यक्ति इस 'मैं' को बचाने के लिए हर संभव समझौता करने को तैयार हो जाता है। 
विभिन्‍न दायरों से गुजरते हुए 'मैं' और समाज के बीच के रिश्‍ते में हर 'मैं' दूसरे से अलग है उसका अपना विवेक है, अपना अंतकरण, अपनी सोच है ... और इसी सोच से समाज बनता या बिगड़ता है ।  
















सरस दरबारी 

मेरे हिस्से की धूप


03 जून, 2013

मैं - अनगिनत प्रश्न ?????


मैं स्त्री हूँ ............. या विद्यार्थी 
जिसके आगे प्रश्नों का चक्रव्यूह है 
सहनशीलता की रिसती दीवारें 
नतमस्तक से टपकता खून 
"उफ़" - मेरे शब्दकोश में नहीं 
चेहरे पर मुस्कान 
भीतर ख़ामोशी का प्रलाप 
क्योंकि मैं अपने मैं की खानाबदोशी से है बेज़ार !!!

                    मैं - रश्मि 

मैं थी कहाँ 
मैं हूँ कहाँ 
मुझे जाना कहाँ है 
मुझे रहना कहाँ है 
घर वह - जो मिला 
या घर वह - जो मैंने कहीं भी बना लिया  (मुस्कुराकर) 
दोस्त कौन दुश्मन कौन 
दोस्त - जिसने मुझे मूर्ख बनाया 
दुश्मन - जिसने मुझे कुछ माना ही नहीं 
फिर भी ........... सब एक जगह 
क्यूँ?
अर्थ क्या है 
 क्या नहीं है 
अनर्थ क्या है 
और क्यूँ है 
अनादर करके 
मृत्यु के बाद 
तर्पण क्यूँ सम्मान क्यूँ ............. किसे दिखाना है 
क्यूँ दिखाना 
कौन देखता है 
कौन देखना चाहता है !
कितने चेहरे 
कितनी भीड़ 
कौन अपना 
कौन पराया 
पता है 
तो क्या पता है 
कैसे पता है 
सिद्ध कौन करेगा सच्चाई 
सच कौन मानेगा?
चारों तरफ तो गड़े मुर्दे बाहर हैं 
जीवित की शिनाख्त कौन करेगा 
पैसा दो तो मृत जीवित 
जीवित मृत 
फिर तलाश किस शक्ल की है 
और कब तक ?
जड़ें सूख गईं 
या सुखा दी गई हैं 
या छलावा है हरियाली 
मुश्किलें सुलझती नहीं 
तो मुश्किलों की दीवारों का हर दिन निर्माण क्यूँ !!
हम किसे हराना चाहते हैं 
जीत जाने से होगा क्या 
आज जीत है तो कल हार है 
सिलसिला रुका नहीं है 
दहशत अजगर की तरह निगल रहा सवालों को 
तो उत्तर कौन देगा 
किसे देगा 
और क्यूँ ?.............










31 मई, 2013

क्यों कि मैं ...

मैं मृत्यु  हूँ
मैं जीवन हूँ 
तुम जब तक समझ सको 
मैं बहुत कुछ हूँ 
मैं बन सकती हूँ तुम 
तुम स्वत्व को पहचान सको 
तो तुम भी मैं हो 
................. निःसंदेह 
मैं कोई दंभ है ही नहीं 
दंभ तो प्रतिस्पर्धा है हम के मध्य 
मैं अकेला है 
वह जानता है 
सिंह समूह में नहीं चलता 
हंस पातों में नहीं उड़ते 
अकेले में ही सत्य उभरता है 
मैं अकेलेपन में एक दिव्य प्रकाश है 

             मैं - रश्मि 

















दिव्य प्रकाश में अस्तित्व की परिधि बन आज मेरे साथ हैं ज्योति खरे जी -


मैं अहसास की जमीन पर ऊगी      
भयानक,घिनौनी,हैरतंगेज 
जड़हीना अव्यवस्था हूँ
जीवन के सफ़र में व्यवधान 
रंग बदलते मौसमों के पार 
समय के कथानक में विजन----     

जानना चाहतीं हूँ 
अपनी पैदाईश की घड़ी,दिन,वजह 
जैसे भी जी सकने की कल्पना 
लोग करवाते हैं 
क्या वैसे ही मुझे वरण कर पाते हैं 
जीवन में------      

प्रश्न बहुत हैं,मुझमें,मुझसे 
काश आत्मविश्लेषण कर पाती 
आतंक नाम के जंगल में नहीं 
स्वाभाविक जीवन क्रम में भी 
अपनी भूमिका तय कर पाती------   

मैं सोचती थी 
प्रश्न सभी हल कर लूंगी 
संघर्षों से मुक्त कर दूंगी 
लोग करेंगे मेरी प्रतीक्षा 
वैसे ही, जैसे करते हैं जन्म की-----   

मेरा अस्तित्व अनिर्धारित टाइम बम है 
मैं जीवन की छाती में 
हर घड़ी गड़ती हूँ,कसकती हूँ 
जिजीविषा के तलवे में   
कील की तरह------  

हर राह पर रह-रह कर मैने 
अपना कद नापा है 
मापा है अपना वजन 
मेरी उपस्थिति से ज्यादा भयावह,असह है 
मेरी उपस्थिति का दहशतजदा ख्याल 
पर मैं कभी नहीं जीत पाई 
प्रणयाकुल दिलों की छोटी सी जिन्दगी में 
नहीं खोद पाई अफ़सोस की खाई------ 

क्यों लगा लेते हैं मुझे गले    
प्रेम से परे,ऊबे और मरने से पहले 
मरे हुये लोग 
दो प्रेमी भर लेते हैं आगोश में 
प्रेम की दुनियां में किसी 
सुकूनदेह घटना की तरह-----

मैं अपने आप को मिटा देना चाहती हूँ 
स्वाभाविक जीवन और 
तयशुदा मृत्यु के बिन्दुपथ पर 
नहीं अड़ना चाहती 
किसी गाँठ की तरह 
क्यों कि मैं 
मृत्यु हूँ ------












"ज्योति खरे"   

27 मई, 2013

मैं का नहीं कभी भी अवसान होता !!!!

मैं - केवट है
तो मैं ही राम 
केवट को राम कह लो 
या राम को केवट .....
मैं ही किनारे से बढ़ता है 
मैं के सहारे दूसरे किनारे पहुँचता है 
मैं चाह ले दुविधा तो मझदार 
मैं थाम ले अपने डगमगाते विचारों को 
तो किनारा ............ 
मैं में अद्भुत क्षमता है 

                मैं - रश्मि प्रभा 








आज मैं' की आस्था की अखंड ज्योत लिए जानी मानी सीमा सिंघल अपनी सदा के साथ हैं - 
मैं के रंगमंच पर ...........


मैं एक ऐसा बिंदु
जो आस्‍था भी है और संकल्‍प भी
मैं शक्ति भी मैं सर्वस्‍त्र भी
मैं वो दर्पण
जिसमें हर एक को अपने
हम का प्रतिबिम्‍ब दिखलाई देता है
मैं नदियों में गंगा
वेदों में गीता
अनंत मेरा आकाश
सहस्‍त्र मेरा धरती
जो मिटाये नहीं मिटता
झुकाये नहीं झुकता
....
मैं साथ सबके ऐसे
जैसे एक साँकल
कड़ी दर कड़ी शांत‍ स्थिर मना
जब बजे तो भीतर तक
एक स्‍वर में बजकर गुँजायमान हो !
....
मैं एक सुरक्षा प्रहरी
अडिग अविचल शक्तिशाली
भय रहित कर
विश्‍वास की हथेलियों के मध्‍य
उंगलियों के पोरों की छुअन से
जो वचनबद्धता के कुंदे पर सवार हो
तो हवाओं के मध्‍य
मेरी अडिगता का बखान होता
मैं का नहीं कभी भी अवसान होता 
मैं से तो बस जीवन का दान होता !!!!















सीमा सिंघल 'सदा' 
http://sadalikhna.blogspot.in/

23 मई, 2013

करीब से मैं की सुनो तो ...

तुम मानो न मानो
हम इसे स्वीकार करे न करे 
पर मैं मैं ही हूँ 
... यह मैं मेरा अहम् नहीं 
मेरी पहचान है 
मैं हट जाऊँ 
दे दूँ अपनी आहुति 
तो रह क्या जाएगा !
अस्तित्वहीन एक शरीर ................

                        मैं - रश्मि प्रभा 




कई बार हास्य महज हंसने के लिए नहीं होता .सहज सन्देश भी छिपा होता है ...
अपने मैं को संतुष्ट करने के लिए हम क्या नहीं कहते , क्या नहीं करते ...जब अपने मुख से या किसी और के मुख से लगातार मैं -मैं सुनायी देता है तो एक उकताहट सी हो जाती है ....
हम जो होते हैं उसे इतने विस्तार से क्या बयान करना है , वह नजर आ ही जाता है , दूर रहने वालों को कुछ देर मुखौटों से बहलाया जा सकता है , मगर करीब आकर साफ़ चेहरा नजर आ जाता है इस "मैं" का ...

             




मत पूछ मैं क्या हूँ
मैं ये हूँ , मैं वो हूँ ....

मैंने ये किया , मैंने वो किया
मैंने उसको रुलाया
मैंने उसको सताया
मुझसे वो यूँ प्रभावित हुआ

 मैंने उसको यूँ हंसाया
मैं ये कर सकूँ मैं वो कर सकूँ
मैं क्या- क्या नहीं कर सकूँ
मैं... मैं ...मैं... मैं...

मन करता है कभी -कभी
इक मोटी जेवड़ी बाँध दूं
इस मैं के गले में
और रेवड़ के साथ खिना दूं
गड़ेरिये की लाठी की हांक पर
फिर मजे से करते रहियो
मैं ... मैं ...मैं ....मैं ...

---हास्य कविता

जेवड़ी -- रस्सी
खिना दूं --भेज दूं













नाम- वाणी शर्मा 
ब्लॉग - गीत मेरे  एवं ज्ञानवाणी   .

20 मई, 2013

मंजिल "मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!

मैं' तो सबका अपना है
सूरज भी सबका एक है
मुमकिन है भाव एक से होंगे 
पर एक सूक्ष्म जुगनू से एहसास अलग होंगे 
एक मैं अहम् 
एक मैं समाहित 
एक मैं, मैं की तलाश में 
तो एक मैं कणों में ............... मैं की अपनी फितरत अपने अनुभवों से होती है .... मैं' को हम बनाने की कोशिश करते हैं पर मैं, मैं को जब तक स्वयं नहीं तराशता - भटकता रहता है . कभी रिक्त सा,कभी सम्पूर्ण सा -

                  मैं - रश्मि प्रभा 


















इसी एक की तलाश में आज मैं' की ठोस कड़ी हैं - रंजना भाटिया 


मैं कौन हूँ "? यह सवाल अक्सर हर इंसान के दिल में उभर के आता है कुछ इसकी खोज में जुट जाते हैं ...और कुछ रास्ता भटक कर दिशाहीन हो जाते हैं .यह "मैं "की यात्रा इंसान की कोख के अन्धकार से आरम्भ होती है और फिर निरन्तर साँसों के अंतिम पडाव तक जारी रहती है ....यही हमारे होने की पहली सोच है चेतना है जो धीरे धीरे ज़िन्दगी के सफ़र में परिवार से समाज से धर्म से और राजनीति से जुडती चली जाती है ..मैं शब्द ही अपने अस्तित्व को बचाने की एक पुरजोर कोशिश ..और एक ऐसी वाइब्रेशन जो खुद से खुद को एक होने के एहसास से रूबरू करवा देती है ...और जब यह तलाश पूरी होती है तो दुनिया को रास नहीं आती है ..मैं मीरा बन के जब जब पुकार करती है तब तब समाज अपने अहम् को ले कर सामने आ जाता है ...जब जब यह मैं की चेतना जागती है तब तब जहर के प्याले होंठो से लगा दिए जाते हैं ..पर न यह खोज रूकती है न यह मैं का ब्रह्मनाद रुकता है यह तो बस नाच उठता है ..पग में बंधे घुंघरू में और नाद बन के जगा देता है अंतर्मन को 

खुद में खुद को पाने की लालसा 
खुद में खुद को पाने की तलाश 
उस सुख को पाने का भ्रम 
या तो पहुंचा देता है 
मन को ऊँचाइयों में
या कर देता है
दिग्भ्रमित 
और तब 
लगता है जैसे 
मानव मन पर 
कोई और हो गया है ..........

यदि यह मैं कौन हूँ का सवाल मिल जाता है तो इंसान बुद्धा हो जाता है ..और नहीं मिलता तो तलाश जारी रहती है ..इसी तलाश में जारी है मेरी एक कोशिश भी ..

सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
"मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
"मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!















16 मई, 2013

अहम् ब्रह्मास्मि ...


मैं एक आग है,मैं पानी है,मैं तूफ़ान,मैं बौखलाहट,मैं घबराहट
मैं ही जीतता है मैं ही हारता है 
मैं ही जुड़ता है 
मैं ही तोड़ता है 
मैं न चाहे तो एकता कैसी 
परिवर्तन कैसा 
दो मैं के एकाकार होने में सृष्टि है 
मैं को अपमानित मत करो 
मैं चला गया 
तो सब गया 
मैं से ही है सबकुछ और नहीं भी है ................................

                      मैं - रश्मि प्रभा 



आज के अस्तित्व की कड़ी में श्री कैलाश शर्मा - अनुभवों के ब्रह्माण्ड के साथ - 

‘अहम् ब्रह्मास्मि’
नहीं है सन्निहित 
कोई अहंकार इस सूत्र में,
केवल अक्षुण विश्वास 
अपनी असीमित क्षमता पर.
  
‘मैं’ ही व्याप्त समस्त प्राणी में
‘मैं’ ही व्याप्त सूक्ष्मतम कण में 
क्यों मैं त्यक्त करूँ इस ‘मैं’ को, 
करें तादात्म जब अपने इस ‘मैं’ का
अन्य प्राणियों में स्थित ‘मैं' से
होती एक अद्भुत अनुभूति 
अपने अहम् की,
नहीं होता अहंकार या ग्लानि
अपने ‘मैं’ पर.

असंभव है आगे बढ़ना
अपने ‘मैं’ का परित्याग कर के, 
यही ‘मैं’ तो है एक आधार 
चढ़ने का अगली सीढ़ी ‘हम’ की,
अगर नहीं होगा ‘मैं’
तो कैसे होगा अस्तित्व ‘हम’ का, 
सब बिखरने लगेंगे 
उद्देश्यहीन, आधारहीन दिवास्वप्न से. 

‘मैं’ केवल जब ‘मैं’ न हो
समाहित हो जाये उसमें ‘हम’ भी
तब नहीं होता कोई कलुष या अहंकार, 
दृष्टिगत होता रूप 
केवल उस ‘मैं’ का 
जो है सर्वव्यापी, संप्रभु, 
और हो जाता उसका ‘मैं’
एकाकार मेरे ‘मैं’ से
असंभव है यह सोचना भी
कि नहीं कोई अस्तित्व ‘मैं’ का, 
यदि नहीं है ‘मैं’ 
तो नहीं कोई अस्तित्व मेरा भी,
‘मैं’ है नहीं मेरा अहंकार 
‘मैं’ है मेरा विश्वास 
मेरी संभावनाओं पर 
मेरी क्षमता पर, 
जो हैं सन्निहित सभी प्राणियों में 
जब तक है उनको आभास 
अपने ‘मैं’ का.











कैलाश शर्मा 

13 मई, 2013

मेरा ‘मैं’ ...

मैं एक यज्ञ
मैं ही यज्ञ की अग्नि 
मैं ही संकल्प 
मैं ही कर्ता मैं ही हर्ता 
मैं ही आहुति 
मैं प्राणवायु 
मैं मृत्यु की खामोश आहटें 
मैं शब्द मैं ख़ामोशी 
मैं रेखा मैं चित्र 
देखते देखते मैं ही एक खाली कैनवस 
अज्ञानता की हद मैं 
ज्ञान का मुखर प्रकाश मैं 
मैं हन्ता,मैं निर्माता 
मैं मर्मज्ञ मैं कुटिल ....... मैं अपने भीतर सारे मैं से भरा हूँ ....... भरा हूँ,पर हम सिर्फ - 'मैं' 

                             मैं - रश्मि प्रभा - 















आज आपके पास हैं साधना वैद जी .... जिनके मैं' में जीवन का सारांश मिलता है ....

जब भी अपने
हृदय का बंद द्वार
खोल कर अंदर झाँका है
अपने ‘मैं’ को सदैव सजग,
सतर्क, संयत एवँ दृढ़ता से अपने
इष्ट के संधान के लिये
समग्र रूप से एकाग्र ही पाया है !
ऐसा क्या है उसमें जो वह
सागर की जलनिधि सा अथाह,
आकाश सा अनन्त, धरती सा उर्वर,
वायु सा जीवनदायी व गतिमान एवँ
पवित्र अग्नि सा ज्वलनशील है !
ऐसा क्या है उसमें जो
संसार का कोई भी आतंक
उसे भयभीत नहीं करता,
कोई भी भीषण प्रलयंकारी तूफ़ान
उसे झुका नहीं सकता,
कैसे भी अनिष्ट का भय उसका
मनोबल तोड़ नहीं पाता !
लेकिन जो अपनी अंतरात्मा की
एक चेतावनी भर से सहम कर
निस्पंद हो जाता है,
जो मेरी आँखों में लिखे
वर्जना के हलके से संकेत को
पढ़ कर ही सहम जाता है और
मेरे होंठों पर धरी निषेधाज्ञा की
उँगली को देख अपनी वाणी
खो बैठता है !
मैं जानती हूँ
दुनिया की नज़रों में
मेरा यह ‘मैं’
एक ज़िद्दी, अड़ियल, अहमवादी,
दम्भी, घमण्डी और भी
न जाने क्या-क्या है !
लेकिन क्या आप जानते हैं  
मेरा यह ‘मैं’
मेरे आत्मसम्मान का एक
सबसे शांत, सौम्य और
सुदर्शन चेहरा है,
जिस पर मैं अपनी सम्पूर्ण
निष्ठा से आसक्त हूँ !
वह इस रुग्ण समाज में विस्तीर्ण   
वर्जनाओं, रूढ़ियों और सड़ी गली
परम्पराओं की गहरी दलदल से
बाहर निकाल मुझे किनारे तक
पहुँचाने के लिये मेरा एकमात्र 
एवँ अति विश्वसनीय 
अवलंब है !
अपने स्वत्व की रक्षा के लिये
मेरे पास उपलब्ध मेरा इकलौता
अचूक अमोघ अस्त्र है !
मेरी विदग्ध आत्मा के ताप को
हरने के लिये अमृत सामान
मृदुल, मधुर, शीतल जल का
अजस्त्र अनन्त स्त्रोत है !
मुझे कोई परवाह नहीं
लोग मुझे क्या समझते हैं
लेकिन मेरी नज़रों में मेरी पहचान
मेरे अपने इस ‘मैं’ से है
और निश्चित रूप से मुझे
अपनी इस पहचान पर गर्व है !
जिस दिन मेरी नज़र में
इस ‘मैं’ का अवमूल्यन हो जायेगा
वह दिन मेरे जीवन का
सर्वाधिक दुखद और कदाचित
अंतिम दिन होगा क्योंकि
मुझे नहीं लगता उसके बाद 
मेरे जीवन में ऐसा कुछ 
अनमोल शेष रह जायेगा
जिस पर मैं अभिमान कर सकूँ !













साधना वैद

09 मई, 2013

मैं ...


आज मेरे साथ 'मैं' की असमंजसता लिए सौरभ रॉय हैं .... क्या यह मैं" मैं ही है 
या है कोई गुफा 
जहाँ समाधिस्थ कितने सवाल और जवाब हैं 
साँसें चलती हैं 
रुक जाती हैं 
पर मैं का पड़ाव 
अहर्निश अखंड यात्रा के साथ है .......

                      मैं - रश्मि प्रभा 


















हंसते-हंसते अचानक रुका !
सोचा 
किसके साथ मैं क्यों हंसा !
सोचा
ये मेरी शक्ल कैसे !
सोचा
ये मेरी कलम कैसे !
सोचा
ये मेरे मित्र कौन !
सोचा
ये मेरा शरीर कैसे !
सोचा
ये मैं ज़िन्दा कैसे !
सोचा
ये मेरी आँखें कैसे !
सोचा
ये मेरा घर कैसे !

मैं तो इधर गया था
हाँ इधर !
सोचा
तो मैं उधर कैसे !!











- सौरभ राय 

वर्ष 1989 में एक शिक्षित बंगाली परिवार में जन्म 
झारखण्ड में निवास 
बैंगलोर में ब्रोकेड नामक कंपनी में इंजीनियर की नौकरी
तीन काव्य संग्रह प्रकाशित - 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा', 'उत्थिष्ठ भारत' एवं 'यायावर'
हिंदी की कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित - हंस, वागर्थ, कृति ऒर, वटवृक्ष इत्यादि 
हिंदी काव्य के अलावा अंग्रेजी में भी गद्य लेखन, जिन्हें souravroy.com में पढ़ा जा सकता है