24 मार्च, 2014

तलाश सम्पूर्ण की ...




'मैं' रश्मि प्रभा एक बार फिर आपके सामने हूँ ... कैलाश शर्मा जी के 'मैं' के साथ ... 

टुकड़े टुकड़े संचित करते जीवन में 
भूल जाते अस्तित्व सम्पूर्ण का,
देखते केवल एक अंश जीवन का 
मान लेते उसको ही सम्पूर्ण सत्य 
वही बन जाता हमारा 
स्वभाव, प्रकृति, अहम् और मैं’.

नहीं होता परिचय सम्पूर्ण से 
केवल बचपने प्रयासों द्वारा,
जगानी होती बाल सुलभ उत्सुकता
बचपना है एक अज्ञानता 
एक भय नवीनता से,
बचपन है उत्सुकता और मासूमियत 
जिज्ञासा जानने की प्रति पल 
जो कुछ आता नवीन राह में,
नहीं ग्रसित पूर्वाग्रहों  
पसंद नापसंद, भय व विचारों से
देखता हर पल व वस्तु में 
आनंद का असीम स्रोत.

जैसे जैसे बढ़ते आगे जीवन में 
अहंकार जनित मैं’,
घटनाएँ, विचार और अर्जित ज्ञान 
आवृत कर देता मासूमियत बचपन की,
देखने लगते वर्तमान को 
भूतकाल के दर्पण में
भूल जाते अनुभव करना  
प्रत्यक्ष को बचपन की दृष्टि से.

जीवन एक गहन रहस्य 
अपरिचित दुरूह राहें 
अनिश्चित व अज्ञात गंतव्य,   
बचपन की दृष्टि 
है केवल संवेदनशीलता 
अनभिज्ञ भावनाओं 
मैंके मायाजाल से
जो करा सकती परिचय 
हमारे अस्तित्व के 
सम्पूर्ण सत्य से.




....कैलाश शर्मा 
http://sharmakailashc.blogspot.in/

20 नवंबर, 2013

‘मैं’ एक समस्यायें अनेक !!!

मैं' एक स्वीकार है
मैं भविष्य का शोध,
मैं आगाज़,मैं विनाश 
मैं उपजाऊ, मैं बंज़र 
बंजरता सोच की - जो मैं'के व्यक्तित्व से जुड़ी होती है 
मैं'सकारात्मक न हो 
तो न कोई संरचना सम्भव है 
न ही पलायन !!!   
                   रश्मि प्रभा 











‘मैं’ एक समस्यायें अनेक 
समस्यायें अनेक
रूप अनेक
लेकिन व्यक्ति केवल एक।
नहीं होता स्वतंत्र अस्तित्व
किसी समस्या या दुःख का,
नहीं होती समस्या 
कभी सुप्तावस्था में,
जब जाग्रत होता 'मैं'
घिर जाता समस्याओं से।
मेरा 'मैं'
देता एक अस्तित्व 
मेरे अहम् को 
और कर देता आवृत्त
मेरे स्वत्व को।
मैं भुला देता मेरा स्वत्व
और धारण कर लेता रूप 
जो सुझाता मेरा 'मैं'
अपने अहम् की पूर्ती को।
नहीं होती कोई सीमा 
अहम् जनित इच्छाओं की,
अधिक पाने की दौड़ देती जन्म 
ईर्ष्या, घमंड और अवसाद 
और घिर जाते दुखों के भ्रमर में।

'मैं' नहीं है स्वतंत्र शरीर या सोच,
जब हो जाता तादात्म्य 'मैं' का 
किसी भौतिक अस्तित्व से 
तो हो जाता आवृत्त अहम् से
और बन जाता कारण दुखों  
और समस्याओं का.
कर्म से नहीं मुक्ति मानव की
लेकिन अहम् रहित कर्म 
नहीं है वर्जित 'मैं'.
हे ईश्वर! तुम ही हो कर्ता
मैं केवल एक साधन 
और समर्पित सब कर्म तुम्हें
कर देता यह भाव 
मुक्त कर्म बंधनों से,
और हो जाता अलोप 'मैं'
और अहम् जनित दुःख।

जब हो जाता तादात्म्य 
अहम् विहीन ‘मैं’ का   
निर्मल स्वत्व से, 
हो जाते मुक्त दुखों से 
और होती प्राप्त परम शांति।

कैलाश शर्मा 

27 अगस्त, 2013

मेरा 'मैं' ...

रिक्तता,पूर्णता के मध्य 
अपने  'मैं' को बैसाखी बना 
चलता रहता है मेरा 'मैं' 
कभी स्तब्ध- कभी निःशब्द मुखर 
कभी चीत्कार करता,कभी शून्य में विलीन होता 
हर दिन एक नया 'मैं' 
'मैं' से लड़कर 
मेरे आगे खड़ा रहता है 
और मेरे साथ समूह की यात्रा करता है 
'मैं' के नए विम्ब-प्रतिविम्ब के लिए  ……. 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं-रश्मि प्रभा स्व की एक परछाईं सीमा सिंघल 'सदा' के 'मैं' के साथ आज हूँ,कल कोई और 'मैं' मिले  … तब तक मिलिए आज के 'मैं' से 

मेरा 'मैं' - मेरा अहंकार,
मेरा 'मैं' - 
मुझसे भी श्रेष्‍ठ जब हो जाता है 
सच कहूँ
कुछ जलने लगता है  मन में
पर फिर भी नहीं पिघलता
जाने क्‍यूँ मेरा 'मैं'
...
तर-ब-तर पसीने में भीगा 'मैं'
शुष्क ज़ुबान
खोखली बातों का सिरा लिये
सच की जड़ों तक जब पहुँचता है 
घुटनों के बल बैठ
अपने अमिट और अटल होने का अनुमान, 
जीवन का संज्ञान लिये
अपने बुनियाद होने का दंभ भरता है
और इस तरह
खोखला हो जाता कहीं मेरा ही मैं
......
मेरा 'मैं' - मेरा शिखर,
फिर भी हो जाता मौन
श्रेष्‍ठता की पहली पंक्ति पर बैठा
हर चेहरे पर अपना अक्‍स लिये
अपनी भव्‍यता का पाठ  सुनाता
अपना इतिहास गाता 
किसने उसकी उड़ाई हँसी
किसने परिहास किया
सब बातों से बेखबर मेरा 'मैं'
कितने सवालों को अनसुना कर
सिर्फ कर्ता बनकर कर्तव्‍य करता 
एक दिन तपकर
कुंदन हो जाता मेरा 'मैं'
.....

सदा

12 अगस्त, 2013

तुमसे कहने को बहुत कुछ था मेरे पास !!!

'मैं' का अरण्य अर्गला है 
जिसमें तुम फँसे तो शोर है 
विचरण किया  
तो मुक्ति के गूढ़ अर्थ ……. 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं - रश्मि प्रभा शोर से शान्ति की ओर  ……… 
अपने 'मैं' के अरण्य से निकलकर 
मैंने तुमसे बहुत कुछ कहना चाहा था 
पर …………… 
हमारे मध्य परिवेशीय अंतराल था !

माना उम्र हमारी आस-पास ही थी 
आकर्षण के मार्ग भी थे आस-पास 
लेकिन - तुम मैं नहीं थे 
मैं तुम नहीं थी !!
इस एहसास के धागे से मैंने अपने मन के होठ सी दिए 
और आगे बढ़ गई ...
  
अन्तर्द्वन्द की पीड़ा 
धागों को तोड़ने का प्रयास करती 
उससे पहले 
मैं' की मिटटी में 
कई ज्ञान के पीपल पनप आये 
मैं' ने उनकी शाखों पर ख़ामोशी के धागे बाँधे 
संकल्प का सिंचन किया 
समूह की आँधी में 
निःसंदेह मैं' घबराया 
पर मैं' के साथ ही ईश्वर है
इस विश्वास ने उखड़ते हौसलों की जड़ों को पुख्ता बनाया 

आंधियाँ कहाँ नहीं आतीं ?
पाँव किसके नहीं फिसलते ?
मन किसका भ्रमित नहीं होता ?
…… 
सबकुछ सबके हिस्से होता है 
बस सच मानने,झूठ बोलने का फर्क होता है   ….,
एक अनोखी दृढ़ता के साथ 
मेरे मैं' ने इस सच की गांठ बाँधी 
कि तुमसे कुछ भी कहना-सुनना व्यर्थ है 
क्योंकि हमारी मान्यताओं के धर्म 
शुरू से 
बिल्कुल अलग थे 
तुम चौराहे की गिरफ्त से निकलते 
तो दोराहे में उलझते 
और मैंने अपनी राहों को सीमित कर लिया था
 
कुछ मकसदों की अग्नि मेरे आगे निर्बाध जलती रही 
जिसके आगे मेरी हर सोच 
साम,दाम,दंड,भेद की कसौटी पर निखरती गई 
अन्यथा - तुमसे कहने को बहुत कुछ था मेरे पास !!!
बहुत कुछ !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

29 जुलाई, 2013

"मैं" का सफर भी !!!

'मैं' शंखनाद,
ॐ की ध्वनि प्रतिध्वनि,
रक्तबीज,रक्तदंतिका 
पाप-पुण्य 
महादेव की जटा से निःसृत गंगा 
धरती से लुप्तप्रायः होती गंगा 
मैं - क्षितिज 
रेत भी,जल भी, भ्रम भी … 












मैं- रश्मि प्रभा …………रेखा श्रीवास्तव (मेरा सरोकारके 'मैं' के आरम्भ,गति,चिंतन, के साथ आज हूँ आपके साथ ....

"मैं"
यही तो है
मेरे अस्तित्व का  प्रतिबिम्ब 
ये
"मैं"  जो जन्म  से ही
समाहित होता है स्वयं में ,
लेकिन यह "मैं" पाया  कहाँ से ?
माँ का "मैं"
पापा का "मैं"

तब जाकर मुझे मेरा "मैं " मिला .
जिसने बचपन से
सत्य की   डोर थामी ,
न दंड का भय ,
न  प्रताड़ना का डर ,
आसान  न था
उस पथ पर चलना ,
चारों और उगे कैक्टस
सत्य के राही  को

चीरने की फिराक में रहते मिले .
 बिंधी भी पर फिर
 सुलझा कर अपने "मैं" को चल पड़ी .
लेकिन
फिर भी गलत समझी गयी ,
जिस के लिए खड़ी हुई
मिथ्यारोपों की तेज आवाज में
सत्य की चीख दब गयी .
फिर  आगे बढ़ी
औरों के दुःख काँधे पर उठाये
उन्हें  दिखाते हुए रास्ते
अपने "मैं" के  प्रकाश से

रोशनी भी दी उनको
बढ़ गए तो  सुकून मिला .
फिर आगे
"मैं" में सीता गढ़ी
अनुगामिनी  बनी
तो सीता सी
चुपचाप पीछे चली .
अपने "मैं" के अस्तित्व को
सीता बन पीछे किया
वृहत परिवार में
मेरा मैं छल , प्रपंच के
जाल में फाँसा गया
दबाया  गया ,
लेकिन वो मेरा "मैं "
कहीं से कमजोर नहीं  था,
सिर उठा कर गर्व से
जीत कर दुनियां की जंग
फिर खड़ी  हुई मैं

दर्पण से उज्जवल "मैं" को
सबने स्वीकार किया .
 "मैं " ने
औरों के मन के बोझ को ,
आँखों के आंसुओं को ,
अपने मन पर
अपने नयनों में  लेकर
अपने में धर लिया
और जब एक हंसी की रेखा

उनके मुख  पर देखी
तो "मैं" का जीवन उद्देश्य कुछ पूर्ण हुआ .
अभी शेष कुछ काम है
पता नहीं
इस "मैं" की

अंतिम सांस तक
पूरा कर पाऊं
या नहीं ,
फिर भी साँसे बाकी हैं
और मेरे "मैं" का सफर भी !!!











29 जून, 2013

तलाश मेरे ‘मैं’ की ...

हम के हुजूम में सब 'मैं' होते हैं
हम कोई आविष्कार नहीं करता 
हाँ वह 'मैं' को अन्धकार दे सकता है 
'मैं' के कंधे पर हाथ रख सकता है 
'मैं' की आलोचना कर सकता है ..............
मकसद 'मैं' का होता है 
'मैं' न चाहे तो उसे चलाया नहीं जा सकता 
विवशता 'मैं' की 
विरोध 'मैं' का 
व्यूह 'मैं' का 
चीत्कार 'मैं' का 
'मैं' की हार-जीत 'मैं' से है 
हर कारण 'मैं' है 
न चाहते हुए भी 'मैं' हँसता है 
तो वह उस 'मैं' के अपने निजी कारण हैं 
यदि शिकायत है तो 'मैं' से करो 
क्योंकि 'मैं' ही 'मैं' को विवश करता है 
कारण 'मैं' ही पैदा करता है 
पलायन 'मैं' करता है 
निवारण भी 'मैं' का होता है 
..................................................आत्मा 'मैं', परमात्मा 'मैं' - बाकी सब झूठ !

मैं - रश्मि प्रभा,   आज फिर एक बार कैलाश शर्मा जी के 'मैं' के साथ 



ढूँढता अपना अस्तित्व मेरा ‘मैं’ 
जो खो गया कहीं 
देने में अस्तित्व अपनों के ‘मैं’ को.

अपनों के ‘मैं’ की भीड़ 
बढ़ गयी आगे 
चढ़ा कर परत अहम की
अपने अस्तित्व पर,
छोड़ कर पीछे उस ‘मैं’ को
जिसने रखी थी आधार शिला
उन के ‘मैं’ की.

सफलता की चोटी से
नहीं दिखाई देते वे ‘मैं’
जो बन कर के ‘हम’
बने थे सीढ़ियां
पहुँचाने को एक ‘मैं’
चोटी पर.
भूल गए अहंकार जनित 
अकेले ‘मैं’ का 
नहीं होता कोई अस्तित्व 
सुनसान चोटी पर.

काश, समझ पाता मैं भी 
अस्तित्व अपने ‘मैं’ का 
और न खोने देता भीड़ में 
अपनों के ‘मैं’ की,
नहीं होता खड़ा आज 
विस्मृत अपने ‘मैं’ से 
अकेले सुनसान कोने में.

अचानक सुनसान कोने से 
किसी ने पकड़ा मेरा हाथ
मुड़ के देखा जो पीछे 
मेरा ‘मैं’ खड़ा था मेरे साथ
और बोला अशक्त अवश्य हूँ 
पर जीवित है स्वाभिमान  
अब भी इस ‘मैं’ में.
स्वाभिमान अशक्त हो सकता
कुछ पल को 
पर नहीं कुचल पाता इसे 
अहंकार किसी ‘मैं’ का, 
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’ 
स्वाभिमान साथ होने पर.



कैलाश शर्मा 
 

24 जून, 2013

मैंने थाम ली ऊँगली जब "मैं" की !!

मैंने देखा है 'मैं' को हर बार 
दिन के कोलाहल में चुप 
आधी रात को टहलता हुआ 
दीवारों पर अनकहे ख्यालों को उकेरता हुआ 
झूठ से स्वगत करता 
...........................................'मैं' के साथ कोई 'हम' नहीं होता, मैं के साथ आना है,मैं के साथ जाना है और यही सत्य है ...

मैं - रश्मि प्रभा 'मैं' के साथ 














मैंने थाम ली ऊँगली जब  "मैं" की
तब जाना बुद्ध को 
समझा कृष्ण को ...

मैंने तो "मैं' के धरातल पर रामराज्य स्थापित किया था 
एकलव्य सी निष्ठा जगाई थी 
पर ...!!!
कर्ण की दानवीरता सीख कवच गँवा दिया 
तब हारकर कृष्ण का छल अपनाया 
"मैं" को कुरुक्षेत्र बना 
"मैं" की सेना बनाई 
एक मैं' कौरव 
एक मैं' पांडव 
सारथि कृष्ण यानि सत्य !

सत्य अपमानित वचन सुनकर 
रिश्तों से टूटकर 
अलग होकर 
बिलखकर भी दम नहीं तोड़ता 
वह कर्ण की मृत्यु को भी आत्मसात करता है 
क्योंकि असत्य के संहार के लिए 
कई मोहबंध छोड़ने होते हैं 
हाँ -
मोह 'मैं' के पैरों की जंजीर है 
जिसे तथाकथित समाज के डर से 
घुंघरू की तरह बाँधकर मृत 'मैं' भटकता है 
जीने के लिए मैं' को स्वत्व मंत्र का जाप करना होता है 
मैं" को यज्ञकुंड बना 
अपनी कमजोरियों की आहुति देनी होती है 
मैं' को प्रबल बना पुख्ते रास्ते बनाने होते हैं 
ताकि ज़िन्दगी कुछ सुना सके 
आनेवाले 'मैं' को .............