मैं " एक पतली सुरंग से निकलने का मनोबल रखता है बिना किसी 'हम' के
सफलता 'मैं' की होती है
यदि 'मैं' विनम्र हुआ तो सौन्दर्य बरकरार
अहंकार का नशा चढ़ते विनाश का कगार !
मैं' ' सफलता है तो 'मैं ' मारक भी है 'मैं' का .........
मैं - रश्मि प्रभा
आज हाइकू की जादूगर ऋता शेखर मधु के साथ मैं'" का विचार लेकर आपके सामने हूँ
कतरा कतरा जमा होता तब समुन्दर बनता है
कली कली जब खिल जाती तब उपवन सज जाता है
इकाई से दहाई बनती और तब सैंकड़ा बन पाता है
‘मैं’ से हम, फिर होते हमलोग तब समाज बन जाता है
‘मैं’ जब तक अस्तित्व में नहीं आएगा तब तक समष्टि का निर्माण सम्भव नहीं|किन्तु विडम्बना यह है कि जो ‘मैं’ समाज का निर्माण करता है वह उसी समाज में विलीन होने लगता है|’मै’ खुद को उपेक्षित और अस्तित्वहीन महसूस करने लगता है|जो मैं समाज को पहचान देता है वही अपनी पहचान खोने लगता है तब आवश्यकता महसूस होती है अपना वजूद तलाश करने की| ‘अहम्’ का मतलब बताने की|हर ‘मैं’ की
अपनी ज़िन्दगी होती है, अपने अनुभव होते हैं.अपनी अहमियत होती है| उसके
अपने सुख दुख होते हैं जिसमें कोई पूर्ण रूप से सहभागी नहीं बन सकता| एक
शिशु जब संसार में आता है तो अपना आगमन बताने के लिए वह रोता है तभी सब जान
पाते हैं कि नन्हा मेहमान आ गया|वहीं से वह ‘मैं’ की
तलाश शुरु कर देता है|किसी नन्हे बच्चे की ओर ध्यान न दिया जाए या चीजों
में कम हिस्सा दिया जाए तो उसका विरोध शुरु हो जाता है|बार बार यह बताने की
आवश्यकता महसूस होने लगती है कि ‘मैं भी हूँ’|
मैं भी एक पूर्ण मानव हूँ जिसके दायरे में हर अधिकार और कर्तव्य आ जाते
हैं|सबसे पहले वह अपने घर में अपना वजूद तलाशता है| फिर वह समाज में कदम
रखता है| वहाँ भी उसे आवश्यकता महसूस होती है कि उसके ‘मैं’ को मान मिले|
हमारा समाज दो वर्गों में विभाजित है-स्त्री वर्ग और पुरुष वर्ग| पुरुष वर्ग का ‘मैं’ सुरक्षित रहता है क्योंकि उनका एक अपना घर होता है| स्त्री वर्ग का ‘मैं’ हम
या हमलोग में निहित हो जाता है| स्त्री के पास कोई घर नहीं होता| वह सदैव
उस निर्णय पर चलती है जो दूसरों के द्वारा उसके लिए लिए जाते हैं जबकि वह
भी उतनी ही सक्षम है जितने पुरुष...या कभी कभी उनसे भी ज्यादा| लड़की जबतक
अविवाहित है तभी तक माता पिता के घर को अपना कह पाती है जबकि उसे मालूम
होता है कि भविष्य में वह घर भी उसका नहीं| विवाह के पश्चात् वही घर, घर
नहीं मायका कहलाने लगता है| मायका मतलब माँ का घर...फिर उसका घर कहाँ खो
गया? जिस नए घर में वह जाती है वह ससुराल कहलाता है...मतलब सास का घर...फिर
मिलने वाला नया घर उसका कहाँ है?जब ये दोनों घर उसके हैं ही नहीं फिर अपनी
इच्छानुसार जीने के लिए वह आजाद भी नहीं| खुदा न खास्ता यदि पति ढंग का न
मिला तो उस स्त्री का जीना भी दूभर हो जाता है| सात फेरे हमेशा सुखद जीवन
के वचन के साथ लिए जाते हैं किन्तु सात फेरों के साथ पुरुष को एक अधिकार
स्वतः मिल जाता है- अपनी पत्नी पर हुक्म चलाने और गाहे बेगाहे उसे बेइज्जत
करने का अधिकार| उसकी सोच पर भी वह जबरन अधिकार जमाने लगता है| स्त्री की
भूख ,प्यास,नींद,हँसना,रोना,बोलना.. .सब कुछ पति के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है| उसके बाद वह स्त्री कहीं गुम हो जाती है|वह भी एक ‘मैं’ है
,इसे वह भूल जाती है| तब वह निकल पड़ती है अपने खोए हुए वजूद को
ढूँढने...जहाँ वह जानी जाती है सिर्फ़ अपने नाम से...किसी की बेटी, पत्नी,
बहु या माँ के नाम से नहीं| फिर इन्हीं लोगों के द्वारा वह सम्मान भी पाने
लगती है|
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण को अपना महत्व बताना पड़ा है| ऋतुओं में,
नदियों में, भोजन में, वृक्षों में, महीनों में जो सर्वश्रेष्ठ है..वही
कृष्ण अर्थात् विष्णु हैं...ऐसा कृष्ण ने खुद कहा| जब भगवान को अपना महत्व
साबित करने के लिए बोलना पड़ा तो हम तो तुच्छ मानव हैं| जब तक हम स्वयं
अपने ‘मैं’ का मान नहीं करेंगे तो लोगों को क्या पड़ी है| स्त्री है तभी तो संसार है|
‘मैं’ जहाँ एक तलाश की चाहत है वहीं ‘सिर्फ मैं’ विनाश का आगाज भी है| रावण ने कहा था ‘सिर्फ मैं’...हिरणयकशिपु ने कहा ‘सिर्फ़ मैं’...नतीजा..विनाश !! ‘मैं’स्वाभिमान है... ‘सिर्फ़ मैं’ अभिंमान| अभिमान से बचो...स्वाभिमान को सुरक्षित रखो| ‘मैं’ को सुरक्षित रखो| खुद को पाओ|...फिर न ज़िन्दगी से शिकायत रहेगी...न किसी और से!!
...ऋता शेखर ‘मधु’
वाकई कहां तक सोच जा रही है। मैं ये पढ़कर वाकई हैरान हो जाता हूं। जब यहां आता हूं, तो पुराने लिंक्स पर जाने के लिए मजबूर हो जाता हूं। वजह ये कि इसके पहले हम कहां तक पहुंच चुके हैं।
जवाब देंहटाएंमैं की ये ऋंखला यूं ही जारी रहे। अपने सोच के दायरे को बढा रहा हूं, ताकि कभी मैं भी इस काबिल हो जाऊं कि मुझे भी यहां जगह मिल जाए.। बहुत बढिया।
मीडिया के भीतर की बुराई जाननी है, फिर तो जरूर पढिए ये लेख ।
हमारे दूसरे ब्लाग TV स्टेशन पर। " ABP न्यूज : ये कैसा ब्रेकिंग न्यूज ! "
http://tvstationlive.blogspot.in/2013/06/abp.html
तो देर किस बात की महेंद्र भाई ........... लिखिए इस मैं की अहमियत
हटाएंशुक्रिया महेन्द्र जी...रश्मि दी की बातों से सहमत हूँ|
हटाएंmain jab jab aham mein dhala tab tab wah kuch n raha ..bahut badhiya
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रंजना जी !!
हटाएंbahut badhiya
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अरुण जी !!
हटाएं्मै का ही तो सारा विलास है बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवन्दना जी...शुक्रिया !!
हटाएंSelf is all we have..
जवाब देंहटाएंand Self is all we can offer to anyone else
शुक्रिया ज्यिोति मिश्रा जी !!
हटाएंबहुत बढ़िया लिखा है वाकई ‘मैं’स्वाभिमान है... ‘सिर्फ़ मैं’ अभिंमान| अभिमान से बचो...स्वाभिमान को सुरक्षित रखो| ‘मैं’ को सुरक्षित रखो|यह मैं भी ज़रूरी है अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए।
जवाब देंहटाएं‘मैं’ जहाँ एक तलाश की चाहत है वहीं ‘सिर्फ मैं’ विनाश का आगाज भी है|
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!!!!
स्वयं को तलाशता मन.....
बधाई ऋता दी...
आभार रश्मि दी!!
अनु
अनु...शुक्रिया:)
हटाएंऋता जी ने बहुत खूबसूरती से सटीक विचार प्रस्तुत किया है । बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसंगीता दी...शुक्रिया !!
हटाएंयहाँ पर स्थान देने के लिए शुक्रिया रश्मि दी...सादर आभार !!
जवाब देंहटाएंमैं' ' सफलता है तो 'मैं ' मारक भी है 'मैं' का ..
जवाब देंहटाएं.....बहुत सुन्दर शब्दों में 'मैं' को परिभाषित किया है रश्मि जी...
...मैं के विभिन रूपों की बहुत गहन व्याख्या करने के लिए ऋता शेखर मधु जी को बधाई...बहुत सार्थक प्रस्तुति...
शुक्रिया कैलाश सर !!
हटाएं"मैं " आत्मविश्वास है ,सिर्फ "मैं" अहंकार है ,सिर्फ को दूर रखें तो अच्छा. बहुत सार्थक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंlatest post: प्रेम- पहेली
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शुक्रिया सर !!
हटाएंबहुत सुंदर विचार प्रस्तुत किये हैं ॠता जी ! 'मैं' ही आरम्भ है, 'मैं' ही आजीवन सह अस्तित्व की लड़ाई में जूझता है और 'मैं' ही अंत में कभी पराजित तो कभी विजेता बन जाता है ! इस 'मैं' को सही आकार, सही रूप और सही मात्रा में तराशने की आवश्यकता है जीवन स्वयमेव संवर जाता है !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार साधना जी!!
हटाएंपुरुष वर्ग का ‘मैं’ सुरक्षित रहता है क्योंकि उनका एक अपना घर होता है| स्त्री वर्ग का ‘मैं’ हम या हमलोग में निहित हो जाता है|
जवाब देंहटाएंsachchi baat si lag rahi hai...
लग रही है न सच्ची बात...शुक्रिया मुकेश:)
हटाएंखुदी को बुलंद करने वाली बात है। अपने वजूद की तलाश सभी को रहती है।
जवाब देंहटाएं..अच्छा चिंतन।
सही कहा देवेन्रद्र जी...शुभकामनाएँ!
हटाएंक्या "मैं " कुछ भी नही "तुम" बिन
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा आपने
शुक्रिया नीलिमा जी!
हटाएंवाह.......अति सुन्दर ।
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