एक सोच खुले आकाश में पतंग की तरह
उड़ान भरती है
गिद्ध सी प्रतिस्पर्द्धा
उसके पेंच काटने को
विद्युत् सी लपकती है
सोच,महत्वकांक्षा,आविष्कार के आगे
नफरत के दीमक पनपने लगते हैं
और शमशान में चिताएँ जलती हैं !!!
"मैं" खुद को समेटता है
मैं " उम्मीदों के घेरे बनाता है
फिर अक्षर अक्षर अपने अस्तित्व को एक पहचान देता है ....
मैं - रश्मि प्रभा
एक सार्थक अक्षर के सामर्थ्य के रूप में एक "मैं" संजय पाल को अपने साथ लेकर समंदर की एक एक लहरों को गिन रही हूँ .................
मैं मेरे लिए महज एक शब्द नहीं
है। यह जीवन है। कई मायने में जीवन से भी ज्यादा। यही कारण है कि यह गतिशील
होते हुए भी कई मायने में स्थिर रहा है। हमेशा स्थायित्व की पराकाष्ठा और
धागे से बाधा हुआ। हां, मैं - मैं ही हूं लेकिन समय के साथ और संदर्भ में
उम्र के साथ मेरे मैं होने का मायने बदलता रहा है। जब मैं बाल्यावस्था में
था तो 'मैं' मैं ही था। जब किशोरावस्था में था तो भी 'मैं' मैं ही था। अब
जब युवावस्था में हूं तो भी 'मैं' मैं ही हूं। जाहिरतौर पर मेरे जीवन की
इन तीनों ही स्थितियों में जीवन के अर्थ महज शाब्दिक नहीं थे। अर्थ और
मायने बदलते रहे ... जीवंतता बनी रही।
बाल्यावस्था में मेरा भी जीवन उतना ही सहज था जितना
सामान्यतौर पर एक बच्चे का होता है। मन में शरारत, बाल सुलभ चंचलता और
होंठो पर अठखेलियां करती मुस्कान। गुड्डे -गुड़ियों के खेल / मिट्टी के घर
घरौंदे / और दिल दिमाग के कोने कोने में अपना स्थान पुख्ता किए हुए खिलौने
मेरे जीवन के आधार थे। पर मेरी मासूमियत और मेरे मासूम जीवन को वह सब कुछ
नहीं मिला जो सच्चे अर्थों में मिलने की सख्त दरकार थी। मेरे घर परिवार में
जातिगत पेशा जीवन की प्रथम प्राथमिकताओ में था। हम शेफर्ड कम्युनिटी से
संबंधित हैं। मैं महज पांच साल की उम्र से दिन भर भेड़ों के पीछे भागता रहता
था। भूख / प्यास / नदी / पहाड़ और झरनों से साक्षात्कार करता शाम को कभी
किसी घनेरे जंगल तो कभी किसी सुनसान, निर्जन व बियाबान में सो जाता था। सच
कहूं तो मैं एक जन्मजात घुम्म्कड़ी था। जिसने बहुत ही छोटी सी उम्र में
प्रकृति और उसके सनिध्व में पल रहे जीवो को देखा और समझा।
यह सफ़र जीवन में लम्बे समय तक चलता रहा। मैं अपने जीवन
से पूरी तरह से संतुष्ट था। मेरे ही परिवार में दो लोग सरकारी नौकरी में
थे। कभी कभार ही गांव आते थे। गांव के छोटे से बड़े लोग उन लोगों को साहब
कहकर संबोधित करते थे। यह संबोधन मुझे बहुत भाता था। पर पढाई लिखाई जैसी
चीज की कल्पना करनी भी मेरे बस की बात नहीं थी। परन्तु पढाई लिखाई को भाग्य
की नियति मानकर टाल देना भी मेरे बस में नहीं था। संतुष्ट रहने वाला मन
अक्सर असंतुष्ट और दुखी रहने लगा और इसी दरमियान सोचने समझने की भी विवशता
ने मेरे जीवन में अपना एक स्थान बना लिया। सन्दर्भ कोई भी हो मन अनायास ही
डूब जाता था विचारगम्यता में ...
यही कारण रहा कि मेरी पढाई लिखाई काफी देरी से शुरू
हुई। शुरुआत के दिनों में घर पर ही किताबों का अध्ययन मैंने स्वयं से शुरू
किया। बाद में मेरी पढ़ाई लिखाई में गहन रूचि को देखकर मुझे घुम्मकड़ी जीवन
से आजाद कर दिया गया। पढ़ने लिखने को अनुकूल माहौल मिले इसलिए मुझे मेरे
नानी के घर भेज दिया गया। जहां रहते हुए मैंने अपनी पांचवी तक की पढ़ाई पूरी
करते करते अपनी जिंदगी की पहली मंजिल तलाशा। जवाहर नवोदय विद्यालय में मेरा
सलेक्शन मेरी जिंदगी को एक ऐसे मोड़ पर ले आया जहां से मुझे सपने
देखने की विस्तृत आजादी मिली, मैंने दुबारा सपने देखने शुरू किये। पर बिना
कुछ पाने की उम्मीद के साथ। इस स्कूल ने मुझसे बिना कुछ लिए सात सालो तक
मुझे पढ़ाया- लिखाया, सजाया- संवारा और आदमी से इन्सान बनाया।
सात सालों में मैंने अपने खोए हुए आत्मसम्मान को
विकसित किया। प्रतिस्पर्धा की दुनियां में खड़ा होना सीखा। आत्मसम्मान के
साथ जीने की ललक ने जिंदगी को कई आयाम दिए पर मैं कभी नहीं भूला हूं कि
मेरा धरातल क्या है। अपने बोर्डिंग स्कूल के ही समय मुझे एक दिन पता चला की
हम जिस पैसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं, उसमे एक बहुत बड़ा अंश देश के
उधोगपतियों के साथ साथ देश के उन किसानों का भी है जो अपने बच्चों को नहीं
पढ़ा पाते पर टैक्स के रूप में अपनी खून पसीने की कमाई का एक हिस्सा भारत
सरकार को देते हैं। नवोदय विद्यालय पूरी तरह से सरकारी उपक्रम है। इस तरह
से मेरी पढ़ाई- लिखाई में देश के तमाम कामगारों का भी एक विशेष योगदान रहा
है।
यही वह बात है जिसने मुझे मेरी जिंदगी को सार्थकता की
तरफ मोड़ा। मैंने अपनी छोटी सी उम्र में सफलता के कई आयाम देखे परन्तु जिरह
सार्थकता के प्रति ही रही। मेडिकल का इनटरेन्स क्वालिफाइड किया। यूनाइटेड
नेशन फोर्टी टू एनुअल एग्जाम क्वालिफाइड किया। टीवी सीरियलों और
डाकूमेंट्री फिल्म की स्क्रिप्ट लिखे। सामाजिकता के विभिन्य मुद्दों पर शोध
कार्य किया। मीडिया / थिएटर और सामाजिक कार्यों में आज भी संलग्न हूं।
परन्तु आज भी सफलता को कम और सार्थकता को ज्यादा महत्त्व देता हूं। सच कहूं
तो मेरे 'मैं' होने में कर्म की प्रधानता ज्यादा है, और मेरा 'मैं' होना
एक निश्चित रूप और आकार लेने के क्रम में आगे बढ़ रहा है जिसमें मेरे परिवार
का एक महत्वपूर्ण योगदान है।
उपरोक्त जीवन के आलावा अब मैं खुद को एक अलग रूप में
पाता हूं। जिसे आप दूसरा पक्ष कह सकते हैं। सृजन और लेखन मेरे राग राग में
बसा है पर ...
मैं / मैं सिर्फ शब्द नहीं हूं। ना
ही किसी की प्रेरणा से उपजा वाक्य। मैं अक्षर हूं। प्रेरक भी बन सकता हूं।
तुम चाहो तो बना सकते हो मुझे अपनी प्रेरणा भी। परन्तु याद रहे अपार
संभावनाओ का संसार शब्दों से नहीं अक्षरों से उपजा था। सूक्ष्म हूं एक
बिंदु की तरह से पर मुझे केंद्र माना जा सकता है। आखिर बीज से ही तो वट
वृक्ष की संभावना बनती है। एक बार पुनाश्य याद किया जा सकता है कि शब्द
अक्षरों से बने थे। शब्दों से बुनी गई थी कविता / कहानियां / और उपन्यास
जैसी अनगिनत विधाएं। वस्तुत: सभी का आधार अक्षर ही था।
अक्षर आधार भी है, अमृत भी। गिनती के स्थाई, स्थिर,
चिर परिचित। शब्द बीज बोया जा सकता है परन्तु अक्षरों को उपजाते कभी किसी
ने देखा है ? बहुत सारे सवालों के बीच मैं एक सच हूं। जिसे उपजाया भले ही
नहीं जा सकता परन्तु उस पर खेती की जा सकती है। साहित्य में भी तो आखिर
शब्दों की खेती ही तो होती है। जोतना / बोना / काटना / अच्छे बीज से रोपण
करना / समय समय पर खाद पानी देना और जरुरत पड़ने पर कीटनाशक भी डालते रहना।
मैं भी खुद को अक्षरों की ही तरह साहित्य की विविध विधाओ में खुदको
ढालना चाहता हूं। साहित्य को ही अपना मर्म, कर्म और धर्म बनाना चाहता हूं।
मैं भी जीवन के बिखराव को शब्दों की माला में पिरोना चाहता हूं। वह आंसू,
वह दर्द, वह प्यास और वह पीड़ा, जो बिना किसी लक्ष्य तक पहुचे अपना दम तोड़
देती है उसे अपनी कलम के माध्यम से एक आयाम तक पहुँचाना चाहता हूं। जीवन में
घुले हुए दर्द और विषमता को कलम की नोक से टपकाना चाहता हूं।
कभी कभी आईने के सामने खड़ा होता हूं। मेरा ही एक और
अक्स निकलकर मेरे सामने आ जाता है। उसके हाथो में कलम होती है। वह कहता है
कि मैं लेखक हूं। वह मुझे भी उँगली पकड़कर लिखना सिखाता है। सिखाने के क्रम
में कभी कभी आंदोलित कर जाता है। कहता है कि तुम तलवार चलाओ या फिर कलम एक
ही बात है। मैं प्रतिशोध करता हूं। कहता हूं यह भला कैसे हो सकता है ? वह
कहता है क्यों नहीं हो सकता ? जितनी धार तलवार में होती है उतनी ही कलम
में, पर तुम कलम चलाना क्योंकि यह जायज है और एक लेखक की नियति भी तो मरने की
बजाय बचाना होता है।
कभी कभी उसी आईने के सामने खड़े होने पर एक और अक्स
निकलता है। इसके हाथ कूची होती है। अपने आपको कहता चित्रकार कहता है। मेरे
पीठ पर कुछ आड़ी - तिरछी रेखाएं खीचकर चित्र बनाता है। मैं पूछता हूं यह
क्या है? किसका चित्र बना रहे हो कहता है मानवता का। मैं जोर जोर से हँसता
हूं, ठहाके लगाता हूं। और पूछता हूं कि अगर कोई पीछे से आकर तो ? वह कहता
है तो क्या हुआ ? जो पैदा हुआ है मिटना उसकी जन्मजात नियति है। हां, पर अगर
कभी यह चित्र मिट जाए तो तुम किसी और के पीठ पर एक चित्र बना देना ? और
उससे भी यही कहना की यदि उसकी पीठ से चित्र मिट या मिटा दिया जाए तो किसी
की पीठ पर एक और चित्र बनाएगा। इस तरह एक और एक और करके मिटने और बनने के
क्रम में पूरी दुनियां मानवता के रंग से रंग जाएगी।
क्योकि मिटकर भी सबकुछ नहीं मिटता है, कुछ ना कुछ असर
रह जाता है। पीठ पर मानवता के यही हल्के हल्के निशान सृष्टी को आगे
बढ़ाएंगे तुम सृजक को/ सृजन का आधार विकसित करो। मैं अर्ध निंद्रा में उसकी
बकवास सुनता रहता हूं। उनीदी आंखो पर सपनों को भारी पड़ता देख सो जाता हूं।
सुबह पलकें खुलती हैं। कमरे की सारी की सारी दीवारों को रंगा देख
दिग्भर्मित होता हूं। मन आश्चर्य में डूबा हुआ ना जाने दीवारों पर उकेरी गई
आकृतियों में जीवन के कितने अर्थ और संयोजन तलाशता है।
अपने आपको कई अर्थो में पाता हूं। मेरे अन्दर सर्दी
धूप और बारिश में भीगता हुआ एक पत्रकार भी है। जो बहुत ही निर्दयी सा
प्रतीत होता, आभाव के जीवन को सर्वोपरि मानता है। उसे दूसरों की परवाह
खुद से भी कहीं ज्यादा है। वह अपने जीवन से ज्यादा कुछ नहीं चाहता है। यह
काम साहित्य की तरह सार्थक नहीं होते हुए भी जरुरी है। इसलिए अक्सर वह मेरे
घर की दहलीज पर खड़ा रहता है। किसी घटना की खबर आई नहीं कि अपना कैमरा और
रिकॉर्डर लेकर घटनास्थल की तरफ भागता है। लोगों से बातें करता है, सच को सच
साबित करने के लिए तथ्य और साक्ष्य इकठ्ठा करता है। उसके पास आर्थिक /
सामाजिक / राजनैतिक और ना जाने कौन कौन से कितने मुद्दे होते हैं। हर
मुद्दे पर बात और बहस करता है। सार्थकता को साबित करने के लिए ना जाने
कितने निरर्थक कार्य करता है। कभी झुग्गियों, झोपड़ियों और रेड लाइट कहे
जाने वाले एरिया में अपना वक़्त खपाता है। इस क्रम में उसकी शालीनता पर कीचड़
उड़ेला जाता है। वह आहत होता है। पर जब कर्मप्रधान हो तो सबकी सब चीजें
पीछे छूट जाती हैं।
कर्म को छोड़कर मेरे लिए भी बहुत सारी बातें पीछे छूट
चुकी हैं। जीवन की सार्थकता के संदर्भ तलाश रहा हूं ... पर आज भी मैं अक्षर
ही हूं ...संभावनाओ की तरफ उन्मुख ' मैं ' मैं ही तो हूं।
संजय पाल
अक्षर आधार भी है, अमृत भी। गिनती के स्थाई, स्थिर, चिर परिचित। शब्द बीज बोया जा सकता है परन्तु अक्षरों को उपजाते कभी किसी ने देखा है ? बहुत सारे सवालों के बीच मैं एक सच हूं। जिसे उपजाया भले ही नहीं जा सकता परन्तु उस पर खेती की जा सकती है।
जवाब देंहटाएं....बिल्कुल सच...बहुत सुन्दर और गहन चिंतन...
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत गहन चिंतन और उससे अधिक उसकी प्रस्तुति के आभार !
जवाब देंहटाएंकर्म को छोड़कर मेरे लिए भी बहुत सारी बातें पीछे छूट चुकी हैं। जीवन की सार्थकता के संदर्भ तलाश रहा हूं ... पर आज भी मैं अक्षर ही हूं ...संभावनाओ की तरफ उन्मुख ' मैं ' मैं ही तो हूं।
जवाब देंहटाएंवाह ...ह्ह्ह्ह ...बहुत खूब ....शायद 'मैं' का इससे पारदर्शी स्वरूप कोई और हो ही नही सकता ...."मैं" अक्षर ....अक्षर ब्रह्म ....ब्रह्म सृष्टि .....सृष्टि मैं ....मैं हूं तो सृष्टि ..वरना कहीं कुछ भी नही ....बहुत गहन ...गहनता में ले जा एक अलग ही विचरण ... आनंद कि एक पराकाष्ठा ... बधाई संजय पाल जी ..और रश्मि दी ..आप तो ...हैं ही हैं ...बस इससे ज्यादा आपके लिए क्या कहूँ ....फीलिंग ब्लेस्ड ...
वाह.......बहुत खुबसूरत।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बढ़िया "मै"का उम्दा विवरण
जवाब देंहटाएंवाह उम्दा ......बहुत बढ़िया........:)
जवाब देंहटाएंइस मै से जानने का मौका मिला आपको
सचमुच संजय जी का लेखन जीवन दोनों ही प्रेरणादायक और प्रभावशाली है। वो तूफानों में चलने के आदी हैं। गहन चिंतन, सुन्दर रचना
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