07 जून, 2013

मैं ....

मैं " एक आरम्भ है 
पर मैं " सर्वस्व नहीं - सर्वस्व एक मिश्रण है 
सर्वस्व तो ईश्वर भी नहीं 
भक्त नहीं तो ईश्वर कहाँ !
ईश्वर सूत्रधार है 
जन्म लेता हर "मैं" प्रतिनिधि 
"मैं" पहली किरण है = हर आरम्भ का ....

    मैं - रश्मि प्रभा 


















और मेरे साथ 'मैं' की सूक्ष्मता के साथ हैं सरस दरबारी 

आत्‍मन' सृष्टि और व्‍यक्ति के बीच की वह कड़ी है जो उसे ब्रह्माण्‍ड से जोड़ती है ... विभिन्‍न स्‍तरों पर ... ! 'जीवात्‍मन' उसी 'आत्‍मन' का एक सूक्ष्‍म रूप है - जहाँ से ऊर्जा का उद्गम होता है और वह ब्रह्माण्‍ड के आखिरी छोर तक फैल जाती है ... जल- स्‍तर पर उठती तरंगों सी ... उसी के मध्‍य बसा है एक बिंदु ... 'मैं' जो घिरा हुआ है सकेंदरी वृत्तों (कोंसेट्रिक सर्कल्‍स) से जो बाहर की और जाते - जाते 'मैं' के दायरे को और विस्‍तृत करते जाते हैं .. 'मैं' ... मेरा परिवार ... मेरा घर ... मेरा मोहल्‍ला ... मेरा प्रान्‍त... मेरा देश ... इत्‍यादि और बढ़ते-बढ़ते वृत्त ब्रह्माण्‍ड के आखिरी सिरे तक पहुँच जाता है हर व्‍यक्ति का ब्रह्माण्‍ड उसकी अपनी शिक्षा,अपनी समझ और ज्ञान तक ही सीमित है। यही से उसकी सोच का उद्गम होता है और उसकी प्रवृत्ति निर्धारित होती है। अगर व्‍यक्ति की सोच 'मैं' से शुरू होकर बाहर के वृत्तों की और बढ़ती है तो वह स्‍वार्थी, लोभी, आत्‍म-केन्द्रित और स्‍व हित के बारे में सोचने वाला व्‍यक्ति कहलाता है ... उसी सोच से प्रभावित होते हैं 'रिश्‍ते' चाहे वह उसके रिश्‍ते हों, उसका परिवार हों, रिश्‍तेदार हों, मित्र अथवा परिचित... अक्‍सर उपलब्धियों का अहंकार 'मैं' के दंभ को पोसता है, कुछ ऐसा ही हुआ था हिरण्‍यकश्‍यप के साथ जिसने अपनी शक्ति के मद्य में अँधा हो, अपने ही पुत्र को भस्‍म करने का आदेश दे दिया था सिर्फ इसी होड़ में की कौन अधिक शक्तिशाली है... प्रह्लाद के विष्‍णु या वह स्‍वयं ... वहीं प्रह्लाद के ही पोते असुर राजा महाबली के घमंड को श्री विष्‍णु ने वामन अवतार में तीन पग धरती माँगकर चूर-चूर कर दिया था !
एक पराक्रमी और समझदार व्‍यक्ति ऐसी परीस्थितियों से फिर भी उबर सकता है, लेकिन एक मूर्ख अपना सर्वनाश कर लेता है, असुर राजा महाबली ने वामन से क्षमा मांग मोक्ष प्राप्‍त कर लिया और अपना परलोक सुधार लिया वहीं दंभी हिरण्‍यकश्‍यप झुका नहीं और मृत्‍यु को प्राप्‍त हुआ ... इन कहानियों से हमेशा अच्‍छाई के महत्‍व को समझाया गया और बुराई के दोषों पर जोर दिया गया... हमें यह जताया गया कि अपना जीवन हम स्‍वयं चुनते हैं। सोच वह उपजाऊ ज़मीन है जिस पर हम अपनी अस्तित्‍व का पेड़ रोपते हैं और उसी के अनुसार फल पाते हैं। और हमारा चयन तय करता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी क्‍या पाएगी ... 'काँटे' या 'आम' .... !
जब सोच संकीर्ण होती है तब आपस ही में दीवारें खड़ी हो जाती हैं तभी तो 'बौद्ध' जैसे शांतिप्रिय धर्म में भी बँटवारा हुआ ... 'महायन' और 'हिनायन' दो संप्रदाय बन ... मुसलमानों में 'शिया सुन्‍नी' बने ईसाइयों में 'कथोलिक' और 'प्रोटोस्‍टेंट' बने ... घरों में बँटवारे हुए ... और सगे भाईयों में बैर पनपे ... पर जब किसी इकाई पर बाहर से संकट गहराया, तब अपने भेद-भाव भूलकर एक हो गए और उनकी सोच 'मै' से हटकर हम, तुम  हमारा समाज, शहर, प्रान्‍त, देश तक व्‍यापक हो गयी, फिर चाहे संकट देश पर आया हो, समाज पर, धर्म पर या अपने परिवार पर ... ऐसे में व्‍यक्ति इस 'मैं' को बचाने के लिए हर संभव समझौता करने को तैयार हो जाता है। 
विभिन्‍न दायरों से गुजरते हुए 'मैं' और समाज के बीच के रिश्‍ते में हर 'मैं' दूसरे से अलग है उसका अपना विवेक है, अपना अंतकरण, अपनी सोच है ... और इसी सोच से समाज बनता या बिगड़ता है ।  
















सरस दरबारी 

मेरे हिस्से की धूप


17 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य और सार्थक तर्क पर आधारित है लेख।
    मैं तो पूरी तरह सहमत हूं।
    इस ऋंखला को सप्ताह में कम से कम दो बार जरूर होना चाहिए।

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  2. ... 'मैं' जो घिरा हुआ है सकेंदरी वृत्तों (कोंसेट्रिक सर्कल्‍स) से जो बाहर की और जाते - जाते 'मैं' के दायरे को और विस्‍तृत करते जाते हैं ..

    sachchi baat...

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  3. 'मैं' पर पहली बार आना हुआ.........अलग अंदाज़ भा गया......एक 'मैं' और दुसरे 'मैं' को जोड़ता सेतु 'हम' तक पहुँचता है.....बहुत बढ़िया।

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  4. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(8-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  5. मैं की दीवारों को तोडती...जीवन सा सार्थक सन्देश देती पोस्ट

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  6. बहुत सुंदर बोध देती पोस्ट !

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  7. ईश्वर सूत्रधार है
    जन्म लेता हर "मैं" प्रतिनिधि
    "मैं" पहली किरण है = हर आरम्भ का

    ...बहुत सुन्दर गहन अभिव्यक्ति...

    ..सरस जी का चिंतन बहुत प्रभावी और सारगर्भित...

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  8. बेहतरीन रचना सुंदर अभिव्यक्ति

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  9. सुन्दर सुलझे हुए विचार ....
    बहुत सुन्दर आलेख ....

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