12 अगस्त, 2013

तुमसे कहने को बहुत कुछ था मेरे पास !!!

'मैं' का अरण्य अर्गला है 
जिसमें तुम फँसे तो शोर है 
विचरण किया  
तो मुक्ति के गूढ़ अर्थ ……. 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं - रश्मि प्रभा शोर से शान्ति की ओर  ……… 
अपने 'मैं' के अरण्य से निकलकर 
मैंने तुमसे बहुत कुछ कहना चाहा था 
पर …………… 
हमारे मध्य परिवेशीय अंतराल था !

माना उम्र हमारी आस-पास ही थी 
आकर्षण के मार्ग भी थे आस-पास 
लेकिन - तुम मैं नहीं थे 
मैं तुम नहीं थी !!
इस एहसास के धागे से मैंने अपने मन के होठ सी दिए 
और आगे बढ़ गई ...
  
अन्तर्द्वन्द की पीड़ा 
धागों को तोड़ने का प्रयास करती 
उससे पहले 
मैं' की मिटटी में 
कई ज्ञान के पीपल पनप आये 
मैं' ने उनकी शाखों पर ख़ामोशी के धागे बाँधे 
संकल्प का सिंचन किया 
समूह की आँधी में 
निःसंदेह मैं' घबराया 
पर मैं' के साथ ही ईश्वर है
इस विश्वास ने उखड़ते हौसलों की जड़ों को पुख्ता बनाया 

आंधियाँ कहाँ नहीं आतीं ?
पाँव किसके नहीं फिसलते ?
मन किसका भ्रमित नहीं होता ?
…… 
सबकुछ सबके हिस्से होता है 
बस सच मानने,झूठ बोलने का फर्क होता है   ….,
एक अनोखी दृढ़ता के साथ 
मेरे मैं' ने इस सच की गांठ बाँधी 
कि तुमसे कुछ भी कहना-सुनना व्यर्थ है 
क्योंकि हमारी मान्यताओं के धर्म 
शुरू से 
बिल्कुल अलग थे 
तुम चौराहे की गिरफ्त से निकलते 
तो दोराहे में उलझते 
और मैंने अपनी राहों को सीमित कर लिया था
 
कुछ मकसदों की अग्नि मेरे आगे निर्बाध जलती रही 
जिसके आगे मेरी हर सोच 
साम,दाम,दंड,भेद की कसौटी पर निखरती गई 
अन्यथा - तुमसे कहने को बहुत कुछ था मेरे पास !!!
बहुत कुछ !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

14 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ मकसदों की अग्नि मेरे आगे निर्बाध जलती रही
    जिसके आगे मेरी हर सोच
    साम,दाम,दंड,भेद की कसौटी पर निखरती गई
    ***
    वाह!

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  2. बहुत सुंदर रश्मिप्रभा जी ! उपयुक्त मकसदों का प्रयोजन सामने हो तो संकल्प की दृढ़ता कई गुना बढ़ जाती है और फिर कोई व्यवधान राह नहीं रोक पाता ! बहुत ही प्रेरक रचना ! अति सुंदर !

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल मंगलवार (13-08-2013) को "टोपी रे टोपी तेरा रंग कैसा ..." (चर्चा मंच-अंकः1236) पर भी होगा!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. माना उम्र हमारी आस-पास ही थी
    आकर्षण के मार्ग भी थे आस-पास
    लेकिन - तुम मैं नहीं थे
    मैं तुम नहीं थी !!
    इस एहसास के धागे से मैंने अपने मन के होठ सी दिए
    और आगे बढ़ गई ...ek purn arthpur rachna...jo hame sab kuch deti hai....

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  5. प्रेरक ... स्वयं में स्वयं को तलाशती लाजवाब अभिव्यक्ति ...

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  6. आंधियाँ कहाँ नहीं आतीं ?
    पाँव किसके नहीं फिसलते ?
    मन किसका भ्रमित नहीं होता ?
    .सच जीवन में जाने कितने ही अंजाने मोड़ों से गुजरता है ..
    बहुत बढ़िया प्रेरक रचना

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  7. सबकुछ सबके हिस्से होता है
    बस सच मानने,झूठ बोलने का फर्क होता है ….,
    ....बहुत सार्थक और अद्भुत प्रस्तुति...

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