20 मई, 2013

मंजिल "मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!

मैं' तो सबका अपना है
सूरज भी सबका एक है
मुमकिन है भाव एक से होंगे 
पर एक सूक्ष्म जुगनू से एहसास अलग होंगे 
एक मैं अहम् 
एक मैं समाहित 
एक मैं, मैं की तलाश में 
तो एक मैं कणों में ............... मैं की अपनी फितरत अपने अनुभवों से होती है .... मैं' को हम बनाने की कोशिश करते हैं पर मैं, मैं को जब तक स्वयं नहीं तराशता - भटकता रहता है . कभी रिक्त सा,कभी सम्पूर्ण सा -

                  मैं - रश्मि प्रभा 


















इसी एक की तलाश में आज मैं' की ठोस कड़ी हैं - रंजना भाटिया 


मैं कौन हूँ "? यह सवाल अक्सर हर इंसान के दिल में उभर के आता है कुछ इसकी खोज में जुट जाते हैं ...और कुछ रास्ता भटक कर दिशाहीन हो जाते हैं .यह "मैं "की यात्रा इंसान की कोख के अन्धकार से आरम्भ होती है और फिर निरन्तर साँसों के अंतिम पडाव तक जारी रहती है ....यही हमारे होने की पहली सोच है चेतना है जो धीरे धीरे ज़िन्दगी के सफ़र में परिवार से समाज से धर्म से और राजनीति से जुडती चली जाती है ..मैं शब्द ही अपने अस्तित्व को बचाने की एक पुरजोर कोशिश ..और एक ऐसी वाइब्रेशन जो खुद से खुद को एक होने के एहसास से रूबरू करवा देती है ...और जब यह तलाश पूरी होती है तो दुनिया को रास नहीं आती है ..मैं मीरा बन के जब जब पुकार करती है तब तब समाज अपने अहम् को ले कर सामने आ जाता है ...जब जब यह मैं की चेतना जागती है तब तब जहर के प्याले होंठो से लगा दिए जाते हैं ..पर न यह खोज रूकती है न यह मैं का ब्रह्मनाद रुकता है यह तो बस नाच उठता है ..पग में बंधे घुंघरू में और नाद बन के जगा देता है अंतर्मन को 

खुद में खुद को पाने की लालसा 
खुद में खुद को पाने की तलाश 
उस सुख को पाने का भ्रम 
या तो पहुंचा देता है 
मन को ऊँचाइयों में
या कर देता है
दिग्भ्रमित 
और तब 
लगता है जैसे 
मानव मन पर 
कोई और हो गया है ..........

यदि यह मैं कौन हूँ का सवाल मिल जाता है तो इंसान बुद्धा हो जाता है ..और नहीं मिलता तो तलाश जारी रहती है ..इसी तलाश में जारी है मेरी एक कोशिश भी ..

सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
"मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
"मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!















6 टिप्‍पणियां:

  1. तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
    युगों से गुम है ,
    मेरा अलसाया सा अस्तित्व
    अब इसकी मंजिल
    "मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!
    वाह !! बहुत खूब
    बेहतरीन प्रस्‍तुति

    आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं आकाश हूँ ,पर केवल आकाश नहीं ,

    मैं अग्नि हूँ ,पर केवल अग्नि नहीं ,

    मैं जल हूँ ,पर केवल जल नहीं ,

    मैं वायु हूँ ,पर केवल वायु नहीं ,

    मैं मिटटी हूँ , पर केवल मिटटी नहीं ,

    मैं इनके समष्टि हूँ,

    मैं भौतिक भी हूँ, और अलौकिक भी ,

    तुम में

    मैं अन्तर्निहित शक्ति हूँ

    मुझे जानो ,मुझे पहचानो

    कौन हूँ मैं ?

    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest postअनुभूति : विविधा
    latest post वटवृक्ष

    जवाब देंहटाएं
  3. kamal ki rachna.....sach mey hum sab yahi tho talshte rehte hain

    जवाब देंहटाएं
  4. एक किरण चुरा ली है
    बंद कर लिया है इस किरण को
    अपनी बंद मुट्ठी में ,
    इसकी गुनगुनी गर्माहट से
    पिघल रहा है धीरे धीरे
    "मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
    और छंट रहा है ..
    मेरे अन्दर का
    जमा हुआ अँधेरा.......

    रंजू जी को बधाई....
    आभार रश्मि दी.

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह !! बहुत खूब बहुत सुन्दर प्रस्‍तुति

    आभार

    जवाब देंहटाएं